Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 344
________________ दंसणमोहोत्रसामणा * उक्कस्सिया आबाहा संखेजगुणा । $ १८५. किं कारणं १ अपुव्यकरणपढमसमयट्ठिदिबंधविसए सव्वकम्माणमुकस्साबाहाए विवक्खियत्तादो । पुव्विल्लविसयजहण्णविदिबंधादो एत्थतणठिदिबंधो संखेज्जगुणो, तेण तदावाहा वि तत्तो संखेज्जगुणा त्ति वृत्तं होइ । १९ । गाथा ९४ ] २९३ * जहण्णयं ट्ठिदिखंडयमसंखेज्जगुणं । $ १८६. मिच्छत्तस्स ताव पढमट्टिदीए थोवावसेसे आढत्तस्स चरिमट्ठिदिखंडयस्स गहणं कायव्वं । सेसकम्माणं च गुणसंकमकालस्स थोवावसेसे आढत्तस्स चरिमडिदिखंडयस्य जहण्णभावेण संगहो कायव्वो । एदं च पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपमाणत्तणेण' पुव्विल्लादो असंखेज्जगुणमिदि घेत्तव्वं । २० । करणों में कहीं भी नहीं पाया जाता। और यदि प्रकृतमें ज्ञानावरणादि शेष कर्मोंके जघन्य बन्धकी जघन्य आबाधा लेनी है तो वह इस जीवके गुणसंक्रमके अन्तिम समय में इन कर्मोंका जो अपने पूर्व कालकी अपेक्षा जघन्य विवक्षित बन्ध होता है उसकी लेनी चाहिए, क्योंकि इससे कम प्रमाणवाला बन्ध अन्यत्र सम्भव नहीं है । यद्यपि गुणसंक्रमके समाप्त होनेके बाद भी यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि बना रहता है, किन्तु इसके मन्दविशुद्धिके कारण स्थितिबन्ध अधिक होने लगता है, इसलिये प्रकृतमें गुणसंक्रमके अन्तिम समय में होनेवाले जघन्य स्थितिबन्धकी जघन्य आबाधा ही लेनी चाहिए। अतः उक्त दोनों स्थलोंकी जघन्य आबाधा अन्तरके कालसे संख्यातगुणी होती है यही आशय प्रकृतमें लेना चाहिए । * उससे उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणी है । $ १८५ क्योंकि सब कर्मों की अपूर्वकरण के प्रथम समयमें होनेवाली स्थितिबन्धविषयक उत्कृष्ट आबाधा यहाँ विवक्षित है, क्योंकि पूर्व में कहे गये जघन्य स्थितिबन्धसे इस स्थलका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इसलिये उसकी आबाधा भी पूर्व में कही गई जघन्य आबाधासे संख्यातगुणी होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १९ । विशेषार्थ — स्थितिकाण्डकघात आदि कार्यविशेष अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही प्रारम्भ होते हैं । तदनुसार अपूर्वकरणके प्रथम समय में होनेवाला स्थितिबन्ध ही यहाँपर लिया गया है । वह आगे होनेवाले सब कर्मोंके स्थितिबन्धोंकी अपेक्षा सबसे अधिक होता है, इसलिये उसकी आबाधा भी आगे होनेवाले स्थितिबन्धोंकी आबाधाओं की अपेक्षा सबसे अधिक होगी यह स्पष्ट ही है । वही यहाँ उत्कृष्ट आबाधारूपसे विवक्षित है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * उससे जघन्य स्थितिकाण्डक असंख्यातगुणा है । $ १८६. मिथ्यात्वके तो प्रथम स्थितिके स्तोक शेष रहनेपर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकण्डकका ग्रहण करना चाहिए और शेष कर्मोंके गुणसंक्रमकालके स्तोक शेष रहनेपर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकका जघन्यरूपसे संग्रह करना चाहिए। और यह पल्योपमके संख्यातवें १. आदर्शप्रलौ पलिदोवमासंखज्जदिभागपमाणत्तणेण इति पाठः ।

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