Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 346
________________ गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा ___* जहण्णयं हिदिसंतकम्म संखेनगुणं । १९०. किं कारणं १ मिच्छत्तस्स मिच्छाइट्ठिचरिमसमयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मस्स सेसकम्माणं पि गुणसंकमकालचरिमसमयजहण्णट्ठिदिसंतकम्मस्स बंधादो संखेज्जगुणत्ते विरोहाणुवलंभादो । २४ । लेकर संख्यात हजारों स्थितिबन्धभेदोंका अपसरण होकर अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका और गुणसंक्रमके अन्तिम समयमें शेष छह कर्मोंका प्राप्त होनेवाला स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन हो जाता है। यही कारण है कि यहाँपर उक्त दोनों स्थलोंपर होनेवाले मिथ्यात्व और शेष छह कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला उक्त सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा बतलाया है। * उससे जघन्य स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । ६ १९०. क्योंकि मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जो जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है और शेष कर्मोंका भी गुणसंक्रमकालके अन्तिम समयमें जो जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है उनके वहाँके बन्धको अपेक्षा संख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । २४। विशेषार्थ--यद्यपि सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में प्रथमोपशम सम्यक्त्वके योग्य कौन जीव होता है इस प्रसंगसे किसी शिष्यने यह प्रश्न किया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए दर्शनमोहनीयका और चार अनन्तानुबन्धीका उपशम . कैसे होता है ? इसी प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्यदेवने बतलाया है कि काललब्धि आदिके कारण उनका उपशम होता है। वहाँ प्रथम काललब्धिका निरूपण करते हुए बतलाया है कि कर्मयुक्त भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाले कालके अवशिष्ट रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं। इससे संसारमें रहनेका अधिकसे अधिक कितना काल शेष रहनेपर भव्य जीव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके लिये पात्र होता है इसका नियम किया गया है। यह एक काललब्धि है। दूसरी कर्मस्थितिक काललब्धि है। न तो ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी पात्रता होती है और न ही जघन्य स्थिति के रहते हुए प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी पात्रता होती है। किन्तु जिसके परिणामोंकी विशुद्धिवश उस समय बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागरोपम हो रहा हो और जिसने सत्तामें स्थित कोंकी स्थिति उससे संख्यात हजार सागरोपमोंसे न्यून अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम स्थापित कर ली हो वह जीव प्रथम सम्यकत्वके ग्रहणके योग्य होता है। इस प्रकार यद्यपि यहाँपर बन्धस्थितिकी अपेक्षा सत्कर्मोकी स्थिति न्यून बतलाई गई है, परन्तु यह काललब्धि उस जीवकी अपेक्षा बतलाई गई है जो क्षयोपशम आदि चार लब्धियोंसे सम्पन्न होकर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके सन्मुख होता है। किन्तु यहाँ पर जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे जघन्य स्थिति सत्कर्म संख्यातगुणा बतलाया जा रहा है वह मिथ्यात्वकर्मकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयको लक्ष्यमें लेकर तथा ज्ञानावरणादि छह कर्मोकी अपेक्षा गुणसंक्रमके अन्तिम समयको लक्ष्यमें लेकर बतलाया जा रहा है, इसलिये सर्वार्थसिद्धि आदिके उक्त कथनसे इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती। शेष कथन सुगम है।

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