Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० * उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं संखेजगुणं ।
5 १९१. सव्वकम्माणं पि अपुव्वकरणपढमसमयविसयस्स उकस्सट्ठिदिसंतकम्मस्सेहावलंबियत्तादो । २५ ।
* एवं पणुवीसदिपडिगो दंडगो समत्तो।
$ १९२. एवं पणुवीसदिपडिगमप्पाबहुअदंडयं समाणिय एत्तो अदीदासेसपबंधेण विहासिदत्थाणं गाहासुत्ताणं सरूवणिदेसं कुणमाणो विहासासुत्तयारो इदमाह
* एत्तो सुत्तफासो कायव्वो भवदि ।
5 १९३. पुव्वं परिभासिदत्थाणं गाहसुत्ताणमेण्हि समुक्त्तिणा जहाकम कायव्वा त्ति भणिदं होइ । . (४२) दसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्वो।
पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो॥९५॥ * उससे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है ।
$ १९१. क्योंकि सभी कर्मोंके अपूर्वकरणके प्रथम समयसे सम्बन्ध रखनेवाले उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका प्रकृतमें अवलम्बन लिया गया है । २५ ।
. विशेषार्थ--अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। परन्तु संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण अवश्य होते हैं। इसलिए अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में होनेवाले स्थितिबन्धसे उसके अन्तिम समयमें संख्यातगुणा हीन स्थितिबन्ध होने लगता है । इसलिये अपूर्वकरणके प्रथम समयमें वहाँ प्राप्त स्थितिबन्धसे स्थितिसत्कर्मका संख्यातगुणा होना न्याय प्राप्त है। ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिककर्म अपने जघन्यसे संख्यातगुणा होता है ऐसा भी निर्णय करना उचित ही है।
* इसप्रकार पच्चीस पदवाला दण्डक समाप्त हुआ।
$ १९२. इसप्रकार पच्चीस पदवाले अल्पबहुत्वदण्डकको समाप्तकर आगे अतीत समस्त प्रबन्धके द्वारा जिनके अर्थका विशेष व्याख्यान किया गया है ऐसे गाथासूत्रोंका स्वरूपनिर्देश करते हुए विभाषासूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं
* अब आगे गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना करने योग्य है।
$ १९३. जिनके अर्थका पहले स्पष्टीकरण कर आये हैं उन गाथासूत्रोंकी क्रससे इस समय समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए । वह नियमसे पञ्चेन्द्रिय, संजी और पर्याप्तक होता है ॥ ९५ ॥
१. ता. प्रती 'पंचिंदिय सण्णी [ पुण ] णियमा' इति पाठः ।