Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गाथा ९६ ]
दंसणमोहोवसामणा
दसविहाणं भवणवा सियाणमावासा तेसु सव्वेसु चैव समुप्पण्णा जीवा जिणबिंब-देविद्धिदंसणादीहि कारणेहिं सम्मत्तमुप्पाएंति, ण तत्थ विसेसणियमो अस्थि त्ति भणिदं होइ । तहा दीव-समुद्दे त्ति वुत्ते सव्वैसु दीवसमुद्देसु वट्टमाणा जे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खपञ्जत्ता जेच अड्डाइजेसु दीव- समुद्देसु मणुसा संखेजवस्साउआ गब्भोवक्कतिया असंखेजवस्साउआ च ते सव्वे वि जाईभरत्त - धम्मसवणादिपच्चएहिं अष्पष्पणो विसए सव्वत्थ सम्मत्तमुप्पाति । ण तत्थ देसविसेसणियमो अस्थि त्ति घेत्तव्वं । तसजीवविरहिएस असंखेखेसु समुद्देसु कथं ? ण, तत्थ वि पुव्ववेरियदेवपओगेण णीदाणं तिरिक्खाणं सम्मत्तप्पत्तीए पयट्टंताणमुवलंभादो । गहसद्दो जेण वेंतरदेवाणं वाचओ तेणासंखेज्जेसु दीव - समुद्देसु जे वंतरावासा तेसु सव्वेसु वट्टमाणा वाणवेतरा जिणमहिमादंसणादीहिं कारणेहिं सम्मत्तमुप्पाएंति, ण तत्थ विसेसणियमो अस्थि त्ति गहेयव्वं । तहा 'जोदिसिय' चि जोदिसियदेवाणं चंदाइच्च-गह-णक्खत्त-तारामेयभिण्णाणं गहणं कायव्वं । तेसु वि जिणबिंबिद्धिदंसणादीहिं कारणेहिं सम्मत्तप्पत्ती सव्त्रत्थ ण विरुद्धा त्ति घेत्तव्वं । 'विमाणे' त्ति वृत्ते विमाणवासियदेवाणं गहणं कायव्वं । तेसु वि सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति सव्वत्थ वट्टमाणा सगजाइपडिबद्धसम्मत्तप्पत्तिकारणेहि परिणदा
३९९
दस प्रकारके भवनवासियोंके जितने आवास हैं उन सबमें ही उत्पन्न हुए जीव जिनबिम्बदर्शन और देवर्धिदर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, वहाँ विशेष नियम नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा 'दीव- समुद्दे' ऐसा कहने पर सब द्वीप - समुद्रोंमें वर्तमान जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्त हैं और ढाई द्वीप - समुद्रों में जो संख्यात वर्षकी आयुवाले गर्भज और असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य हैं वे सभी जातिस्मरण और धर्मश्रवण आदि निमित्तोंसे अपने-अपने लिये सर्वत्र सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । वहाँ देशविशेषका नियम नहीं है ऐसा यहाँपर ग्रहण करना चाहिए ।
शंका-स जीवोंसे रहित असंख्यात समुद्रों में तिर्यञ्चोंका प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करना कैसे बन सकता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वहाँ पर भी पूर्वके वैरी देवोंके प्रयोगसे ले जाये गये तिर्यञ्च सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें प्रवृत्त हुए पाये जाते हैं ।
'ग' शब्द यतः व्यन्तर देवोंका वाचक है अतः असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें जो व्यन्तरावास हैं । उन सबमें वर्तमान वानव्यन्तर देव जिनमहिमादर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं वहाँ विशेष नियम नहीं है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। तथा 'जोदिसिय' इससे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंके भेदसे अनेक प्रकारके ज्योतिषी देवोंको ग्रहण करना चाहिए। उनमें भी जिनबिम्बदर्शन और देवर्द्धिदर्शन आदि कारणोंसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति सर्वत्र विरुद्ध नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । 'विमाणे' ऐसा कहनेपर विमानवासी देवोंका ग्रहण करना चाहिए। उनमें भी सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम मैवेयक तक सर्वत्र विद्यमान और अपनी-अपनी जाति से सम्बन्ध रखनेवाले सम्यक्त्वोत्पत्तिके कारणोंसे
१. ता० प्रतौ दीव इति पाठो नास्ति ।