Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 351
________________ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० सम्मत्तं उप्पाएंति त्ति घेत्तव्वं । तत्तो उवरिमअणुदिसाणुत्तरविमाणवासियदेवेसु सम्मत्तुप्पत्ती किण्ण होदि ति चे? ण, तत्थ सम्माइट्ठीणं चेव उप्पादणियमदंसणादो । एत्थेवावंतरविसेसपदुप्पायणट्ठमाह--'अभिजोग्गमणभिजोग्गे' इदि। अभियुज्यंत इत्यभियोग्याः, वाहनादौ कुत्सिते कर्मणि नियुज्यमाणा वाहनदेवा इत्यर्थः । तेभ्योऽन्ये किन्विषिकादयोऽनुत्तमदेवाः, उत्तमाश्च पारिषदादयोऽनभियोग्याः। तेसु सर्वेषु यथोक्तहेतुसन्निधाने सम्यक्त्वोत्पत्तिरविरुद्धेति याक्व । 'उवसामो होइ बोद्धव्वो' एवं भणिदे एदेसु सव्वेसु दंसणमोहस्स उवसामगो होइ ति णायव्यो, विरोहाभावादो त्ति भणिदं होइ। परिणत हुए देव सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-उनसे उपरिम अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती? समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही उत्पन्न होनेका नियम देखा जाता है। अब यहीं पर अवान्तर भेदोंका कथन करनेके लिये कहते हैं-'अभिजोग्गमणभिजोग्गे'-'अभियुज्यन्ते इत्यभियोग्या' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो वाहनदेव वाहन आदि कुत्सित कर्ममें नियोजित हैं वे अभियोग्य देव हैं यह इस पदका अर्थ है। उनसे अन्य किल्विषिक आदि अनुत्तम देव और पारिषद आदि उत्तम देव अनभियोग्य देव हैं। उन सबमें यथोक्त हेतुओंका सन्निधान होने पर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अविरुद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'उवसामो होइ बोद्धवो ऐसा कहने पर इन सबमं दर्शनमोहका उपशामक होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ--पूर्व गाथासूत्र में सामान्यसे इतना ही कहा गया था कि चारों गतियोंके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव दर्शनमोहके उपशामक होते हैं । इस गाथासूत्रमें उन जीवोंका नाम निर्देश पूर्वक स्पष्ट रूपसे खुलासा किया गया है। किसी भी गतिका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त कोई भी जीव क्यों न हो यदि वह प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके उस उस गतिसे सम्बन्ध रखनेवाले अपने-अपने कारणोंसे सम्पन्न है तो वह दर्शनमोहका उपशामक होता है यह इस गाथासूत्रके कथनका सार है। यहाँ टोकामें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधनोंसे कतिपय कारणोंका संकेत किया गया है, अतएव यहाँ उन सब साधनोंका खुलासा किया जाता है। प्रारम्भके तीन नरकोंमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव ये तीन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य साधन हैं। यद्यपि नारकियोंके विभंगज्ञान होनेसे उन सबको यथासम्भव पूर्वभवोंका स्मरण होता है। किन्तु यहाँ पर पूर्वभवोंका स्मरणमात्र प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका साधन नहीं है। किन्तु पूर्व भवमें धार्मिक बुद्धिसे जो अनुष्ठान किये थे वे विफल क्यों हुए इसे जानकर जोआत्म-निरीक्षण कर जीवादि नौ पदार्थोके मननपूर्वक अपने उपयोगको आत्मामें युक्त करते हैं उनके जातिस्मरण सम्यकत्त्वकी उत्पत्तिमें बाह्य साधन है। धर्मश्रवण पूर्वभवके स्नेही सम्यग्दृष्टि देवोंके निमित्तसे होता है, क्योंकि वहाँ ऋषियोंका जाना सम्भव नहीं है। यहाँ पर वेदनाभिभवको प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका तीसरा बाह्य साधन कहा है। सो उससे ऐसा समझना चाहिए कि वेदनासामान्य प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका

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