Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 322
________________ २७१ गाथा ९४] दंसणमोहोवसामणा $ १४४. एवमेत्तिएण वावारविसेसेणापुव्वकरणद्ध समाणिय तदो अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स किरियाविसेसपदुप्पायणमुत्तरमुत्तमाह-- ____ * अणियहिस्स पढमसमए अण्णं ट्ठिदिखंडयं अण्णो हिदिबंधो अण्णमणुभागखंडयं। १४५. अणियट्टिकरणपविठ्ठपढमसमए चेव अण्णमपुव्वकरणचरिमट्ठिदिखंडयादो विसेसहीणद्विदिखंडयमाढतं । द्विदिवंधो वि पविल्लादो ठिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागहीणो तत्थेवाढत्तो। अणुभागखंडयं पि धादिदसेसाणुभागस्साणंतभागमेनं तत्थेवागाइदं । गुणसेढिणिक्खेवो षुण पुचिल्लो' चेव गलिदसेसो पडिसमयम संखेज्जगुणपदेसविण्णासविसेसिदो हवइ । सेसो वि विही पुव्वुत्तो चेव दट्टव्वो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है और अपूर्वकरणके कालमें ऐसे स्थितिकाण्डक संख्यात हजार होते हैं मात्र इतना ही बतलाया गया है, इसलिए स्थितिकाण्डकोंका प्रमाण कितना होना चाहिए ताकि उसके आधारसे अपूर्वकरणके कालमें घटनेवाली विवक्षित स्थितिका प्रमाण प्राप्त किया जा सके। इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ एक पल्योपममें जितने स्थितिकाण्डक हों उनसे संख्यात हजार कोटिगुणे कुल स्थितिकाण्डक होते हैं यह स्वीकारकर अपूर्वकरणके कालमें घटनेवाली विवक्षित स्थितिका प्रमाण त्रैराशिक विधिसे प्राप्तकर वह संख्यात कोटि सागरोपमप्रमाण बतलाया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जितना स्थितिसत्त्व होता है उसके अन्तमें वह संख्यातगुणा हीन हो जाता है। इसी प्रकार स्थितिबन्धके विषयमें भी आगमानुसार समझ लेना चाहिए । ६१४४. इस प्रकार इतने व्यापारविशेषके द्वारा अपूर्वकरणके कालको समाप्तकर उसके बाद अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके क्रियाविशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * अनिवृतिकरणके प्रथम समयमें अन्य स्थितिकाण्डक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकाण्डक होता है। ६१४५. अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयसे ही अपूर्वकरणके अन्तिम स्थितिकाण्डकसे विशेष हीन अन्य स्थितिकाण्डकका आरम्भ करता है। पूर्वके स्थितिबन्धसे पल्यो. पमके संख्यातवें भागप्रमाण हीन स्थितिबन्ध भी वहींपर आरम्भ करता है। तथा घात करनेसे शेष रहे अनुभागके अनन्त वहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको भी वहींपर ग्रहण करता है। परन्तु गुणश्रेणिनिक्षेप पूर्वका ही रहता है, जो अधःस्तन स्थितियोंके गलनेपर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असंख्यातगुणे प्रदेशोंके विन्याससे विशेषताको लिये हुए होता है। शेष विधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। विशेषार्थ—यहाँ अनिवृत्तिकरणमें स्थितिकाण्डक आदिकी क्या व्यवस्था रहती है यह १. ता. प्रतो पुविल्लादो इति पाठः ।

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