Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 316
________________ गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा २६५ ६१३६. संपहि एत्थ गुणसेढिविण्णासकमो वुच्चदे । तं जहा—अपुवकरणपढमसमए दिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ओकड्डकड्डणभागहारेण खंडेयूण तत्थेयखंडमेत्तदव्वमोकड्डिय तत्थासंखेज्जलोगपडिभागियं दव्वमुदयावलियम्भंतरे गोवुच्छायारेण णिसिंचिय पुणो सेसबहुभागदव्यमुदयावलियबाहिरे णिक्खिवमाणो उदयावलियबाहिराणंतरविदीए असंखेजसमयपबद्धमेत्तदव्वं णिसिंचदे । तत्तो उवरिमहिदीए असंखेजगुणं देदि । एवमसंखेजगुणाए सेढीए णिसिंचदि जाव अपुव्वाणियट्टिकरणद्धाहिंतो विसेसाहियगुणसेढिसीसयं ति । पुणो उवरिमाणंतरट्टिदीए असंखेजगुणहीणं देदि । तत्तो परं विसेसहीणं णिक्खिवदि जाव चरिमट्ठिदिमधिच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो ति । एवमपुत्वकरण विदियादिसमएसु वि गुणसेढिणिक्खेवकमो परूवेयव्यो। णवरि गलिदसेसायामेण णिसिंचदि त्ति वत्तव्वं । $ १३६. अब यहाँपर गुणश्रेणिकी रचनाके क्रमको बतलाते हैं। यथा-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजितकर वहाँ लब्धरूपसे प्राप्त एक खण्डप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भाग द्रव्य प्राप्त हो उसे उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकाररूपसे निक्षिप्तकर पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिके बाहर निक्षिप्त करता हुआ उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थितिमें असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करता है। तथा उससे उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इसप्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है । पुनः गुणश्रेणिशीर्षकी उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगुणा हीन द्रव्य देता है। उसके बाद अतिस्थापनावलिको प्राप्त न होता हुआ उससे पूर्वकी अन्तिम स्थितितक क्रमसे विशेष हीन द्रव्यका निक्षेप करता है। इसीप्रकार अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोंमें भी गुणश्रेणिके निक्षेपका कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके आयामक अनुसार निक्षिप्त करता है। विशेषार्थ—गुणश्रेणिका स्वरूप निर्देश हम पहले कर आये हैं। यहाँ गुणश्रेणिप्रमाण निषेकोंमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप किस प्रकार होता है इसका क्रम बतलाया गया है। यहाँ आयुकर्मको छोड़कर शेष कोंकी जिन प्रकृतियोंका वर्तमानमें उदय होता है उनकी उदय समयसे लेकर गुणश्रेणि रचना होती है और जिन कर्मप्रकृतियोंका उदय नहीं होता है उनकी उदयावलिके उपरिम समयसे लेकर गुणश्रेणि रचना होती है। ऐसा होते हुए भी गुणश्रेणि रचनाका प्रमाण अवस्थित होनेसे उसमें प्रत्येक समयमें एक-एक समयकी हानि होती जाती है, क्योंकि अपर्वकरणके प्रथम समयसे गुणश्रेणिरचनाके प्रारम्भ होनेपर जैसे-जैसे एक-एक समय अतीत होता जाता है वैसे-वैसे गुणश्रेणिका आयाम भी घटता जाता है, ऊपर गुणश्रेणि शीर्ष में वृद्धि नहीं होती। इसलिये इसकी अवस्थित गुणश्रेणि संज्ञा है। गुणश्रेणिरचनाके कालमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप किस क्रमसे होता है इसका विचार मूलमें किया ही है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उदयावलिसे ऊपर प्रथम स्थितिसे लेकर अन्तिम स्थितितक प्रत्येक स्थितिमेंसे द्रव्यका अपकर्षण होकर गुणश्रेणिमें निक्षेप होता है। क्रम यह है कि उदयावलिसे उपरिम प्रथम स्थितिमेंसे अपकर्षित द्रव्यका एक समय कम आवलिके एक समय अधिक

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