Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 314
________________ २६३ गाथा ९४] दसणमोहोवसामणा * आगाइदफद्दयाणि अणंतगुणाणि । ६१३३. तस्सेव दंसणमोहोवसामगस्स अपुव्वकरणपढमाणुभागखंडए बट्टमाणस्स खंडयसरूवेणागाइदाणि जाणि फद्दयाणि ताणि पुन्चुत्तणिक्खेवफद्दएहितो अगंतगुणाणि। किं कारणं ? एत्थतणाणुभागसंतकम्मस्स विट्ठाणियस्साणंतिमभागं मोत्तूण सेसाणमणताणं भागाणं कंडयसरूवेणागाइदत्तादो । ____ १३४. एवमपुव्वकरणपढमसमए द्विदि-अणुभागखंडयतब्बंधोसरणाणमक्कमेण छोड़कर नीचेके शेष सब स्पर्धकोंका ग्रहण करना चाहिए। ये जघन्य अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ___* उनसे काण्डकरूपसे ग्रहण किये गये स्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं। ६ १३३. अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान दर्शनमोहका उपशम करनेवाले उसी जीवके काण्डकस्वरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे पूर्वोक्त निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुण होते हैं क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मके अनन्तवें भागको छोड़कर शेष अनन्त बहुभागको काण्डकरूपसे ग्रहण किया है। विशेषार्थ--यहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अनुभागकाण्डकका प्रमाण कितना है तथा किन कर्मोंका अनुभागकाण्डक घात होता है यह सब स्पष्ट किया गया है। यह तो अपूर्वकरणके लक्षणको स्पष्ट करते हुए ही बतला आये हैं कि इस करणमें नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होकर भी प्रत्येक समयके वे परिणाम अपूर्वअपूर्व ही होते हैं और यह भी पहले बतला आये हैं कि करण परिणाम माड़नेके अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही अप्रशस्त कर्मोंका अनुभाग द्विस्थानीय हो जाता है तथा उन परिणामोंको निमित्तकर प्रशस्त कर्मोंका अनुभाग चनुःस्थानीय हो जाता है । अब यहाँ यह बतलाया गया है कि अपूर्व करणके प्रारम्भ होनेके पहले समयमें ही अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका काण्डकघात होने लगता है। किन्तु प्रशस्त प्रकृतियोंमें ऐसा नहीं होता, किन्तु वहाँ प्राप्त हुई विशुद्धिके कारण उनके अनुभागमें उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगती है। अब यह देखना है कि यहाँ एक अनुभागकाण्डकका क्या प्रमाण है ? इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ अनुभागविषयक एक गुणहानि, अतिस्थापना, निक्षेप और अणुभागकाण्डक इन चारोंके आश्रयसे अल्पबहत्वका निर्देश किया गया है । अनुभागविषयक एक गुणहानिमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक होते हैं। उनसे अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धक अनन्तगुण होते हैं। ऊपरके जिन अनुभागस्पर्धकोंका अपकर्षण होता है उनसे नीचेके और निक्षपसम्बन्धी स्पर्धकोंसे ऊपरके जिन बीचके स्पर्धकोंमें निक्षेप नहीं होता उनकी अतिस्थापना संज्ञा है। इन अतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोंसे नीचेके सब स्पर्धकोंकी निक्षेप संज्ञा है। ये अतिस्थापनासम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं। तथा अतिस्थापनासे ऊपरके जिन स्पर्धकोंका अपकर्षण होता है वे काण्डकगत स्पर्धक कहलाते हैं। वे निक्षेपसम्बन्धी स्पधकोंसे भी अनन्तगुणे होते हैं। इस अल्पबहुत्वसे स्पष्ट है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त कर्मोंका जो अनुभागकाण्डक उत्कीरणके लिये ग्रहण किया जाता है उसका प्रमाण अनन्त बहुभागस्वरूप होता है । ६ १३४. इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थितिकाण्डकघात अनुभागकाण्डकघात

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