Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वंजणं ९ मदनं मदः । तदुबृंहिताहंकारस्य दर्पणं दर्पः। तदुत्थापितगर्वस्खलद्गद्गदालापस्य सभिपातावस्थस्येव स्तब्धीभवतः स्तम्भनं स्तम्भः । तथोत्कर्ष-प्रकर्ष-समुत्कर्षाः विज्ञेयाः, तेषामप्यभिमानपर्यायत्वेन रूढत्वात् । आत्मन उत्कर्षः आत्मोत्कर्षः । आत्मोत्कर्षः अहमेव जात्यादिमिरुत्कृष्टो न मत्तः परतरोऽन्योस्तीत्यध्यवसायः। परिभवनं परिभवः परावमान इत्यर्थः । आत्मोत्कर्ष-परपरिभवाभ्यामुद्गत सन्नुत्सिंचति गर्वितो भवतीत्युसिक्तः । एवमेते दश मानकषायस्य पर्यायशब्दाः ।
स्तम्भ-मद-मान-दर्प-समुत्कर्ष-प्रकर्षाश्च ।
आत्मोत्कर्ष-परिभवा उत्सित्तश्चेति मानपर्यायाः ॥ २॥ (३५) माया य सादिजोगो णियदी वि य वेचणा अणुज्जुगदा ।
गहणं मणुण्णमग्गण कक्क कुहक गृहण च्छण्णो ॥३-८८॥
६५. माया सातिप्रयोगो निकृतिवंचना अनृजुता ग्रहणं मनोज्ञमार्गणं कन्कः कुहकं निगृहनं छन्नमित्येते मायापर्यायाः । एतैः शब्दैर्वाच्यो योऽर्थः स मायाकषाय इत्युक्तं भवति । तत्र माया कपटप्रयोगः । सातियोगः कूटव्यवहारित्वं । निकृतिवंचना
अधिक मानना मान है । उन्हीं जाति आदिके द्वारा आविष्ट हुए जीवका मदिरा पान किये हुए जीवके समान उन्मत्त होना मद है। उससे अर्थात् मदसे बढ़े हुए अहंकारका दर्प होना दर्प है। सन्निपात अवस्थामें जिस प्रकार मनुष्य स्खलितरूपसे यद्वा-तद्वा बोलता है उस प्रकार मदवश उत्पन्न हुए दर्पसे स्खलित यद्वा-तद्वा बोलते हुए स्तब्ध हो जाना स्तम्भ है। उसी प्रकार उत्कर्ष, प्रकर्ष और समुत्कर्ष ये तीनों मानके पर्यायवाची नाम घटित कर लेने चाहिए, क्योंकि ये तीनों शब्द भी अभिमानके पर्यायवाचीरूपसे रूद हैं। अपने उत्कर्षका नाम आत्मोत्कर्ष है । मैं ही जाति आदिरूपसे उत्कृष्ट हूँ, मुझसे अन्य कोई दूसरा उत्कृष्ट नहीं है इस प्रकारके अध्यवसायका नाभ आत्मोकर्ष है। दूसरेको परिभवनं अर्थात् नीचा दिखाना परिभव है, दूसरेका अपमान करना यह इसका तात्पर्य है। अपने उत्कर्ष और दूसरेके परिभवके द्वारा उद्गत ( उद्धत ) होता हुआ उत्सिंचति अर्थात् गर्वित होना उसिक्त कहलाता है। इस प्रकार ये दश मानकषायके पर्यायवाची नाम हैं।
स्तम्भ, मद, मान, दर्प, समुत्कर्ष, उत्कर्ष , प्रकर्ष, आत्मोकर्ष, परिभव और उसिक्त ये मानके पर्यायवाची शब्द हैं ॥२॥
* माया, सातियोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कन्क, कुहक, गूहन और छन्न ये ग्यारह मायाकषायके पर्यायवाची नाम हैं ॥३-८॥
६५. माया, सातिप्रयोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, निगूहन और छन्न ये मायाके पर्याय हैं। इन शब्दोंके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह मायाकषाय है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनमेंसे कपटप्रयोगका नाम माया है। कुटिल व्यवहारका नाम सातियोग है। वञ्चना-ठगनेके अभिप्रायका नाम निकृति है।