Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 306
________________ गाथा ९४ ] . दसणमोहोवसामणा २५५ विशेषार्थ-यहाँ अपूर्वकरणके स्वरूपका निर्देश करते हुए बतलाया है कि अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्त है जो अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। इस कालमें कुल परिणामोंका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण होकर भी प्रत्येक समयके परिणाम भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं । जो प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक प्रत्येक समयमें सदृश वृद्धिको लिये हुए हैं । प्रथम समयके असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना प्रत्येक समयमें वृद्धि या चयका प्रमाण है । यहाँ प्रत्येक समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम है इसकी सिद्धि प्रत्येक समय में प्राप्त होनेवाली विशुद्धिके अल्पबहुत्वको ध्यानमें रख कर की गई है, क्योंकि प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है । उससे उसी समयमें प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है। उससे दूसरे समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है । तथा उससे उसी समयमें प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघन कर प्राप्त होती है, इसलिये अनन्तगुणी है। इसी प्रकार गे भी प्रत्येक समयमें जघन्य और उत्कृष्ट विशद्धिका यह अल्पबहुत्व अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । यहाँ प्रत्येक समयकी जघन्य विशुद्धिसे उसी समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिको और उस समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अगले समयकी जघन्य विशुद्धिको उक्त प्रकारसे अनन्तगुणी बतलाया है । इससे स्पष्ट है कि अपूर्वकरणके प्रत्येक समय में असंख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं । वे सब परिणामस्थान प्रत्येक समयके अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं, इसलिये यहाँ भिन्न समयवाले जीवोंकी तद्भिन्न समयवाले जीवोंके साथ अनुकृष्टि तो बनती ही नहीं। किन्तु एक समयवाले जीवोंके परिणामोंमें सदृशता-विसदृशता बन जाती है । इसलिये अपूर्वकरणमें एक समयवाली ही निर्वर्गणा स्वीकार की गई है। खुलासा इस प्रकार है कि जो अनेक जीव एक साथ अपूर्वकरणमें प्रवेश करते हैं उनके परिणाम परस्परमें सदृश भी हो सकते हैं और विसदृश भी। किन्तु भिन्न समयवाले जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं । अब अपूर्वकरणके उक्त स्वरूपको स्पष्ट करनेके लिये यहाँ कल्पित अंकसंदृष्टि दी जाती है कुल परिणामोंकी संख्या–४०९६; अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण ८; चयका प्रमाण १६; नियम यह है कि एक कम पदके आधेको पद और चयसे गुणित करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। यथा-८- १ =७२-४८x१६ = ४४८; इसे सर्वधन ४०९६ मेंसे कम करने पर ४०९६-४४८ = ३६४८ शेष रहे । इसमें ८ का भाग देने पर ३६४८८= ४५६ लब्ध आये। यह अपूर्वकरणके प्रथम समयके कुल परिणाम हैं । इनमें उत्तरोत्तर एक-एक चय १६ जोड़ने पर दूसरे समयसे लेकर आठवें समय तक प्रत्येक समयका द्रव्य क्रमसे ४७२, ४८८, ५०४, ५२०, ५३६, ५५२, और ५६८ होता है । प्रत्येक समयमें होनेवाले ये परिणाम नाना जीवोंकी अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि एक समयमें एक जीवका परिणाम एक ही होता है, दूसरे जीवका भी उसी समय यह परिणाम हो सकता है और उससे भिन्न परिणाम भी हो सकता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें नाना जीवोंके परिणाम परस्पर सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं, इसलिये इसका अपूर्वकरण यह नाम सार्थक है। इसमें भिन्न-भिन्न समयवाले जीवोंके परिणामोंमें परस्पर अनुकृष्टि नहीं बनती यह हम पहले ही बतला आये हैं, इसलिये इस करणमें प्रत्येक समयमें पृथक्-पृथक् निर्वर्गणाकाण्डक स्वीकार किया गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404