Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 289
________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ९०. अथवा अधापवत्तकरणपढमसमयपरिणामट्ठाणाणमेवं खंडणविहाणमणुगंतव्वं । तं जहा-विदियसमयजहण्णपरिणामेण सह जं समाणं पढमसमयपरिणामट्ठाणं तत्तो हेडिमासेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तूण पढमसमए पढमखंडं भवदि । पुणो तदियसमयजहण्णपरिणामेण सह सरिसं जं पढमसमयपरिणामट्ठाणं तत्तो हेडिमासेसपुव्वगहिदसेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तूण तत्थेव विदियखंडपमाणं होइ। एवमेदेण कमेण गंतूण पुणो पढमणिव्वग्गणकंडयचरिमसमयजहण्णपरिणामेण सह पढमसमयपरिणामट्ठाणेसु जं परिणामट्ठाणं सरिसं भवदि तत्तो हेट्टिमासेसपुव्वगहिदसेसपरिणामट्ठाणाणि घेत्तण पढमसमए दुचरिमखंडपमाणं होइ । तत्तो उवरिमसेसासेसविसोहिट्ठाणेहिं चरिमखंडपमाणमुप्पज्जइ । एवं च कदे अधापवत्तकरणद्धं संखेज्जखंडे कादूण तत्थेयखंडम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्ताणि चेव खंडाणि जादाणि । एवं विदियादिसमएसु वि पादेकमंतोमुहुत्तमेत्तखंडाणि जहावुत्तेण विहाणेणाणुगंतव्वाणि जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयो त्ति । संपहि एवं परूविदासेसपरिणामट्ठाणाणमेसा संदिट्ठी । १०००००००००००१००००००००००००१००००००००००००० ०००००००००००। १००००००००००१०००००००००००१००००००००००००१००००००००००। १००००००००००००००००००००१०००००००००००००००००००००००० १००००००००१०००००००००१००००००००००१०००००००००००। ६९०. अथवा अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयके परिणामस्थानोंकी खण्डविधिको इस प्रकार जानना चाहिए । यथा-दूसरे समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयका जो परिणामस्थान समान होता है उनसे भिन्न पूर्वके समस्त परिणामस्थानोंको ग्रहणकर प्रथम समयमें प्रथमखण्ड होता है । पुनः तीसरे समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयका जो परिणामस्थान समान होता है उससे पूर्वके पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामोंसे शेष बचे हुए परिणामस्थानोंको ग्रहण कर वहीं दूसरे खण्डका प्रमाण होता है। इस प्रकार इस क्रमसे जाकर पुनः प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समयके जघन्य परिणामके साथ प्रथम समयके परिणामस्थानोंमें जो परिणामस्थान सदृश होता है उससे पूर्व के पहले ग्रहण किये गये समस्त परिणामोंसे शेष बचे हुए परिणामस्थानोंको ग्रहणकर प्रथम समयमें द्विचरम खण्डका प्रमाण होता है तथा उससे आगेके शेष समस्त विशुद्धिस्थानोंके द्वारा अन्तिम खण्डका प्रमाण उत्पन्न होता है। और ऐसा करने पर अधःप्रवृत्तकरणके कालके संख्यात भाग करके उनमेंसे एक भागमें जितने समय होते हैं उतने ही खण्ड हो जाते हैं । इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक द्वितीयादि समयोंमें भी पृथक्-पृथक् पूर्वोक्त कही गई विधिसे अन्तमुहूर्तप्रमाण खंड जानने चाहिए। इस प्रकार कहे गये समस्त परिणामस्थानोंकी यह संदुष्टि है। (संदृष्टि मूलमें दी है)

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