Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 275
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० देजणामाणमक्कमेण बंधबोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण हुंडसंठाण - असंपत्तसेवट्टसंघडण ० एदासिं दोन्हं पयडीणमेकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण णवंस० बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरिदूण वामणसंठाणकीलियसंघडणाणं दोन्हं पयडीणमेक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरियूण खुजसं ठाण- अद्धणारायण० दोण्हमेदासि पयडीणं एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तमोसरिदूण इत्थि वेदबंधवोच्छेदो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदुण सादिसंठाण - नारायणसरीर ० दोन्हं पि पयडीणं एकदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० पुध० णग्गोधपरि०-वजणारायणसरीरसंघ० दोण्णं पि एक्कदो बंध० । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरियूण मणुसगइ - ओरालियसरीर-तदंगोवंग- वज्ञरिसहसंघडण - मणुस पाओग्गाणुपुवि० दासि पंचण्हं पयडीणं एक्कदो बंधवोच्छेदो । एदं तिरिक्खमणुस्से पडुच्च परूविद, देव - णेरइएस एदासि बंधविच्छेदाणुवलंभादो । अदो चैव सुत्ते दास बंधवोच्छेदो अणुवइट्ठो, सुत्तस्स च चउगइसामण्णावेक्खाए पयट्टत्तादो । तदो सागरोवमपुधत्तं ओसरिदूण असादावेदणीय - अरदि- सोग - अथिर-असुह-अजसगित्ति २२४ माणमेदासि पडणं जुगवं बंधवोच्छेदो । जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधपाओग्गाणं पि एदासिमेत्थ बंधवोच्छेदपरूवणा ण विरुज्झदे । किं कारणं ? सव्वविसुद्धस्सेदस्स बन्ध करनेवाले जीवके हुंडसंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती हैं। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके वामनसंस्थान और कीलिक संहनन इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके स्वातिसंस्थान और नाराचसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे आगे सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान और वज्रनाराचसंहनन इन दोनों प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घटाकर बन्ध करनेवाले जीवके मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन पाँच प्रकृयियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । यह तिर्यों और मनुष्योंकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि देवों और नारकियोंमें इन पाँच प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं पाई जाती और इसीलिये सूत्रमें इनकी बन्धव्युच्छित्तिका निर्देश नहीं किया है, क्योंकि यह सूत्र चतुर्गति सामान्यकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है । उससे आगे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थिति घंटाकर बन्ध करनेवाले जीवके असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । यद्यपि ये प्रकृतियाँ प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक बन्धके योग्य हैं फिर भी यहाँ इनकी बन्धव्यु च्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धके

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