Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ९४ ] दसणमोहोवसामणा
२२१ ६२. संपहि तदियसुत्तगाहाए जहावसरपत्तमवयारं कस्सामो । तं जहा* 'के अंसे झीयदे पुव्वं बंधेण उदएण वा' त्ति विहासा।
६३. एदस्स तदियगाहासुत्तपुव्वद्धस्स अत्थविहासा इदाणिं कायव्वा ति वुत्तं होइ । एसो च तदियगाहापुव्बद्धो दसणमोहउवसामगस्स सव्वेसिं कम्माणं पयडिहिदि-अणुभाग-पदेसे अस्सियूण बंधोदएहिं झीणभावगवेसणट्ठमागओ । तत्थ ताव पयडीणं वंधवोच्छेदकमपदंसणट्ठमिदमाह
* असादावेदणीय इत्थि-णqसयवेद-अरदि-सोग-चदुआउ० - णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वि-आदावअप्पसत्थविहायगइ - थावर-सुहुम-अपजत्त-साहारण-अथिर-असुभ-दूभगदुस्सर-अणादेज-अजसगित्तिणामाणि एदाणि बंधेण वोच्छिण्णाणि ।
६४. एदासिं सुत्तणिद्दिवाणं पयडीणं दसणमोहोवसामगस्स पुव्वमेव जहाक बंधबोच्छेदो जायदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एदेसि कम्माणं बंधवोच्छेदकमंवत्तइस्सामो । तं जहा-तत्थ ताव अभवसिद्धियपाओग्गविसोहीए विसुज्झमाणस्स तप्पाओग्गअंतोकोडाकोडिमेतद्विदिबंधावत्थाए णत्थि एकस्स वि कम्मस्स पयडिबंधबोच्छेदो। एत्तो उवरिमंतोमुहुत्तं गंतूण सागरोवमपुधत्तमेत्तमोसरियण अण्णं द्विदिं बंधमाणस्स तकाले
$ ६२. अब तीसरी गाथाके अवसर प्राप्त अवतारको करेंगे । यथा
* 'दर्शनमोहके उपशमकालसे पूर्व बन्ध और उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे कांश क्षीण होते हैं इसकी विभाषा ।
$ ६३. इस तीसरे गाथासूत्रके पूर्वार्धके अर्थका विशेष व्याख्यान इस समय करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह तीसरी गाथाका पूर्वार्ध दर्शनमोहके उपशामकके सब कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका आश्रयकर बन्ध और उदयकी अपेक्षा क्षीणपनेका अनुसन्धान करनेके लिये आया है। उनमें से सर्व प्रथम प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिके क्रमको दिखलानेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
___ * दर्शनमोहके उपशामकके असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चार आयु, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश कीर्ति ये प्रकृतियाँ बन्धसे पहले ही व्युच्छिन्न हो जाती हैं।
६४. सूत्रमें निर्दिष्ट की गई इन प्रकृतियोंकी दर्शनमोहके उपशामक जीवके पहले ही क्रमसे बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इन कर्मोंके बन्धव्युच्छित्तिके क्रमको बतलावेंगे। यथा-वहाँ जो अभव्योंके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिबन्धकी अवस्था में एक भी कर्मके - प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति नहीं होती। इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण