Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२११
* एत्थ पयडिबंधो द्विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्वो ।
३३. एदम्मि समणंतरणिदिट्ठबीजपदे चउण्हमेदेसिं बंधाणमणुमग्गणा कायव्वात्ति वृत्तं होइ । संपहि एदेण बीजपदेण सूचिदत्थविहासणं कस्सामो । तत्थ ताव पडबंधणिसे तिणि महादंडया परूवेयव्वा । तं जहा - - पंचणाणावरणीय
सणावरणीय सादा वेदणीय-मिच्छत्त- सोलसकसाय- पुरिसवेद - हस्स- रइ-भय-दुगुंछ- देवगदि - पंचिंदियजादि - वेउव्विय - तेजा - कम्मइयसरीर - समचउरससंङ्काण - वेउच्चिय अंगोवंगवण्णादिचउक्क - देवगदिपाओग्गाणुपुव्वि-अंगुरुअलहुआदिच उक्क-पसत्थविहायगदि - तसादिचउक-थिरादिछक्क—णिमिण - उच्चा गोद - पंचंतराइयाणं बंधगो अण्णदरो मणुसो वा मसिणी वा पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ वा । एसो पढमो महादंडओ ।
९ ३४. संपहि विदिओ वुच्चदे । तं जहो – पंचणाणावरण-णवदंसणावरणसादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा- मणुसगइ-पंचिंदिय
* प्रकृतमें प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका मार्गण करना चाहिए |
$ ३३. समनन्तर पूर्व कहे गये इस बीजपद में इन चार बन्धोंका अनुमार्गण करना चाहिए यह कहा गया है । अब इस बीजपद द्वारा सूचित किये गये अर्थका विशेष व्याख्यान करेंगे । उनमें से सर्व प्रथम प्रकृतिबन्धका निर्देश करते हुए तीन महादण्डकोंका कथन करना चाहिए । यथा— पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका अन्यतर मनुष्य, मनुष्यिनी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी जीव बन्धक होता है । यह प्रथम महादण्डक है ।
विशे - जो मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिवाला या पञ्च न्द्रिय तिर्ययोनिनी जीव प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होता है उसके नामकर्म की परावर्तमान अप्रशस्त प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, केवल देवगतिके साथ बँधनेके योग्य प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इसी प्रकार वेदनीय कर्मकी अपेक्षा भी जानना चाहिए, क्योंकि ऐसा जीव असातावेदनीयका बन्ध नहीं करता। मोहनीयकी अपेक्षा न स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका ही बन्ध करता है और न अरति और शोकका ही बन्ध करता है । यहाँ टीकामें पंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि पद छूटा हुआ, प्रतीत होता है, अतः उसमें आये हुए 'पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ' पदसे संज्ञी पञ्च न्द्रिय पर्याप्त गर्भोत्पन्न तीनों वेदवाले तिर्यञ्चों का ग्रहण करना चाहिए। इन सब जीवोंके ऐसी अवस्था में आयुकर्मका बन्ध नहीं होता ।
$ ३४. अव दूसरे दण्डकका कथन करते हैं । यथा - पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति,
१. ता०प्रतौ तं जहा इति पाठो नास्ति । २. ताप्रती हस्स-रदि इति पाठो नास्ति ।