Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चउट्ठाण ८
$ २३. लदासमाणचरिमवग्गणा दारुअसमाणपढमवग्गणा च दो वि संधि ति । एवं सेससंधीणं पि अत्थो वत्तव्वो । तम्हा विवक्खियचरिमसंधीदो विवक्खियपढमसंधी अणुभागावेक्खाए णियमा अहिया होइ, पदेसावेक्खाए च हीणा होइ । होंती विदो विय अणुभाग - पदेसे पेक्खियूण णियमा विसेसेण अनंतभागेग हीणा अहिया च होइ ति सुत्तत्थसंबंधो। एत्थ 'विसेसेणे' त्ति सामण्णणिद्देसेण संखेज्जासंखेज्जभागपरिहारेणानंतभागो चेव घेप्पइ ति कधमवगम्मदे ? ण, वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तदो । एवं ताव माणसंधीणं चउण्हं द्वाणाणमणुभाग- पदे से अस्सियूण सत्थानपरत्थाणेहिं थोवबहुत्तमुहेण सण्णियासं काढूण संपहि तेसिं चेव चदुण्हं द्वाणानं द्वाणसण्णाए णिण्णीदसरूवाणं घादिसण्णामुहेण देस-सव्वघाइभावगवेसणट्ठमुवरिमं गाहासुत्तमोइणं
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(२६) सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होइ दारुअसमाणे । हेट्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥७८॥ $ २४. संपहिएदं सुत्तमस्सियूण माणस्स लदासमाणादिट्ठाणाणं घादिसण्णाए प्रकार सर्वत्र दोनों सन्धियोंमें जानना चाहिए ||७८ ||
$ २३. लताके समान अन्तिम वर्णणा और दारुके समान प्रथम वर्गणा ये दोनों भी सन्धि कहलाती हैं । इसी प्रकार शेष सन्धियोंका भी अर्थ कहना चाहिये । इसलिये विवक्षित अन्तिम सन्धिसे विवक्षित प्रथम सन्धि अनुभागकी अपेक्षा नियमसे अधिक होती है और प्रदेशोंकी अपेक्षा हीन होती है। ऐसी होती हुई भी दोनों ही सन्धियाँ अनुभाग और प्रदेशों की अपेक्षा क्रमशः नियमसे अनन्तवें भाग अधिक और अनन्तवें भाग होन होती हैं इस प्रकार यहाँ सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है |
शंका -- प्रकृत में 'विसेसेण' ऐसा सामान्य निर्देश होनेसे संख्यातवें भाग और असंख्यातवें भाग के परिहार द्वारा अनन्तवाँ भाग ही ग्रहण किया जाता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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समाधान — नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकार के विशेषका ज्ञान होता है । इस प्रकार सर्व प्रथम मानकषायकी सन्धियोंके चारों स्थानोंका अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकार से अल्पबहुत्वद्वारा सन्निकर्ष करके अब स्थान संज्ञारूपसे निर्णीतस्वरूप उन्हीं चारों स्थानोंकी घातिसंज्ञाद्वारा देशघातिपने और सर्वघातिपनेका अनुसन्धान करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है
दारुके समान मानमें प्रारम्भके एक भाग अनुभागको छोड़कर शेष सब अनन्त बहुभाग तथा उत्कृष्ट अनुभाग सर्वावरणीय है। उससे पूर्वका लता समान अनुभाग और दारुका अनन्त भाग अनुभाग देशावरण है तथा दारुसमान अनुभागसे आगेका सब अनुभाग सर्वावरण है ॥७९॥
$ २४. अब इस सूत्र का आलम्बन लेकर मानकषायके लतासमान आदि स्थानोंकी