Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ८५ ]
णिक्खेवत्थ परूवणा
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वा । पयोगट्ठाणं णाम मण वचि - कायपयोगलक्खण जोगड्डाणमिदि घेत्तव्वं । भावड्डाणं दुविहं आगम-णोआगमभेदेण । आगमदो भावद्वाणं सुगमं । णोआगमभावद्वाणं णाम असंखेज्जलोगमेत्त कसायुदयद्वाणाणि ओदइयादिभाववियप्पा वा । एवं णिक्खेवपरूवणं काढूण संपहिएदेसिं णिक्खेवाणं णयविभागपरूवण मुवरिमपबंधमाह - * गमो सव्वाणि द्वाणाणि इच्छइ ।
४१. किं कारणं ? तव्त्रिसए सामण्ण-विसेसप्पये वत्थुम्मि सव्वेसिं णिक्खेवाणं संभवं पडि विरोहाभावादो ।
* संग्रह-ववहारा पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं च अवर्णेति ।
४२. संगहो ताव संक्खित्तत्थग्गहणलक्खणो' पलिवीचिट्ठाण मट्ठाणे पविसदि त्ति पुध तं णेच्छदि । किं कारणं ? ट्ठिदिबंधवीचारट्ठाणाणमद्भाविसेसत्तादो । सोवाणट्ठाणेसु विघे माणेसु तेसिं खेत्तट्ठाणे पवेसदंसणादो । तथा उच्चट्ठाणं पि खेत्तट्ठाणे पविसदि त्ति पुध णेच्छदि, तस्स खेत्तभेदत्तादो । एवं ववहारो वि, तस्स एदम्मि विसए संगण समाणाहिप्पायत्तादो ।
* उजुसुदो एदाणि च ठवणं च अद्धद्वाणं च अवणेइ ।
स्थानका नाम प्रयोगस्थान है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । आगम और नोआगमके भेदसे भावस्थान दो प्रकारका है । आगमकी अपेक्षा भावस्थान सुगम है। असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानों अथवा औदयिक आदि भावोंके भेदोंका नाम भावस्थान है । इसप्रकार निक्षेपका कथन कर अब इन निक्षेपोंका नयविभागसे कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* नैगमनय सब स्थानोंको स्वीकार करता है ।
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$ ४१. क्योंकि उसके विषयरूप सामान्य विशेषात्मक वस्तुमें सभी निक्षेपोंके सम्भव होनेके प्रति विरोधका अभाव है ।
* संग्रहनय और व्यवहारनय पलिवीचिस्थान और उच्चस्थानका अपनयन करते हैं ।
$ ४२. संग्रहनय संग्रहरूप अर्थका ग्रहण लक्षणवाला है । इस नयकी अपेक्षा पलिवीचि - स्थानका अद्धास्थानमें अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये उसे पृथक्से नहीं स्वीकारता, क्योंकि स्थितिबन्धसम्बन्धी वीचारस्थान अद्धाविशेषरूप हैं। सोपानस्थानरूप भी ग्रहण करनेपर उनका क्षेत्रस्थानमें प्रवेश देखा जाता है । तथा उच्चस्थानका भी क्षेत्रस्थानमें प्रवेश हो जाता है, इसलिए उसे पृथक स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह क्षेत्रका एक भेद है । इसी प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षासे भी जानना चाहिए, क्योंकि उसका इस विषय में संग्रहनय के समान अभिप्राय है ।
* ऋजुसूत्रनय उक्त दोनोंका तथा स्थापनास्थान और अद्धास्थानका अपनयन १. ता० प्रती कित्तत्थ - इति पाठः ।