Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे __ [ उवजोगो७ किं जीवेहिं णिरंतरमावुण्णाणि आहो गेदि एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुवरिमं सुत्तमाह
* सव्वअठ्ठाणाणं पुण असंखेज्जा भागा आवुण्णा ।
२५२. तत्थतणसव्वअद्धट्ठाणाणमसंखेजा चेव भागा जीवेहिं अविरहिदसरूवेणावुण्णा । तदसंखेजदिभागो पुण जीवेहिं विरहिदो होदूण लब्भदि त्ति वुत्तं होइ । जइएवं सव्वाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि आवुण्णाणि त्ति कधं पुवुत्तं घडदि त्ति णासंका कायव्वा, पादेकसव्वगुणहाणिट्ठाणंतरेसु केत्तियाणं पि अट्ठाणाणं जीवसुण्णत्ते वि तेसिं गुणहाणिहाणंतराणं समुदायविवक्खाए आवुण्णत्ताविरोहादो। एवं ताव जवमज्झादो हेट्ठा जीवेहिं विरहिदाविरहिदवाणाणं गवेसणं कादण संपहि तत्तो उवरिमेसु वि हाणेसु पयदयमग्गणमुवरिमं पबंधमाह
* उवरिमजवमज्झस्स जहण्णण गुणहाणिहाणंतराणं संखेजदिभागो आवुण्णो । उक्कस्सेण सव्वाणि गुणहाणिहाणंतराणि आवुण्णाणि । ___२५३. जहा जवमज्झादो हेट्ठा सव्वाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि णियमा आवुण्णाणि ण एवं जवमज्झादो उवरिमगुणहाणिट्ठाणेसु तहाविहणियमसंभवो । किंतु तत्थ जहण्णेण सब्वगुणहाणिट्ठाणंतराणं संखेजदिभागो चेव जीवेहिं आरिजदि, सेसाणं संखेजास्थानान्तर जीवोंसे रहित नहीं पाया जाता । अब वहाँके सब अद्धास्थान क्या जीवोंसे निरन्तर आपूर्ण हैं या नहीं इस प्रकारकी आशंका होनेपर निशंक करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु सर्व अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग ही आपूर्ण है।
$ २५२ वहाँके सर्व अद्धास्थानोंका असंख्यात बहुभाग ही जीवोंसे निरन्तररूपसे आपूर्ण है । उनका असंख्यातवां भाग तो जीवोंसे रहित पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यदि ऐसा है तो सब गुणहानिस्थानान्तर आपूर्ण हैं यह पूरोक्त कथन कैसे घटित होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पृथक्-पृथक् सब गुणहानिस्थानान्तरोंमेंसे कितने ही अद्धास्थान जीवोंसे रहित होनेपर भी समुदायकी विवक्षामें उन गुणहानिस्थानान्तरोंके आपूर्णपनेके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। . इस प्रकार सर्व प्रथम यवमध्यसे पूर्व के जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका विचार करके अब उससे उपरिम स्थानोंमें भी प्रकृत विषयका विचार करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* यवमध्यसे आगेके गुणहानिस्थानान्तरोंका जघन्यरूपसे संख्यातवाँ भाग जीवोंसे आपूर्ण है तथा उत्कृष्टरूपसे सब गुणहानिस्थानान्तर जीवोंसे आपूर्ण हैं ।
$ २५३. जिस प्रकार यवमध्यसे पूर्वके सब गुणहानिस्थानान्तर नियमसे जीवोंसे आपूर्ण हैं उस प्रकार यवमध्यसे आगेके गणहानिस्थानों में उस प्रकारका नियम नहीं देखा जाता। किन्तु उनमें जघन्यरूपसे सब गुणहानिस्थानान्तरोंका संख्यातवाँ भाग ही जीवोंद्वारा
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