Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ दु अणुभागे एककसायम्हि एककालेण उवजुत्ता का च गदी' ति एत्थेदिस्से णिबद्धत्तदंसणादो । संपहि 'विसरिसमुवजुञ्जदे का च ।' ति गाहासुत्तावयवमस्सियूण दुकसायोवजुत्ता वा, तिकसायोवजुत्ता वा, चदुकसायोवजुत्ता वा का गदी होदि त्ति एदेसि तिण्हं पुच्छाणिदेसाणमणुगमो काययो, एगकसायोवजोगविवजासलक्खणो विसरिसोवजोगो त्ति गहणादो । एवंविहपुच्छापडिबद्धत्थपदुप्पायणट्टमेदं गाहासुत्तमोइण्ण मिदि जाणावणट्ठमेदं पुच्छासुत्तमिदि भणिदं । संपहि एवंविहपुच्छाणं णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो
* तदो णिदरिसणं।
१४५. तदो पुच्छाणुगमादो अणंतरमिदाणिं णिदरिसणं णिण्णयकरणं वत्तइस्सामो त्ति वुत्तं होइ ।
* तं जहा।
* णिरय-देवगदीणमेदे वियप्पा अत्थि, सेसाओ गदीओ णियमा चदुकसायोवजुत्ताओ।
$ १४६. एदे अणंतरपरूविदा पुच्छावियप्पा तदुत्तरवियप्पा च णिरय-देवगदीणमथि । किं कारणं ? णिरयगदीए ताव कोधकसायोवजुत्तजीवरासी अद्धामाहप्पेण सव्वबहुओ होदूण णिरंतररासित्तमणुहवइ । एवं देवगदीए वि लोभोवहै, क्योंकि 'एक कषायसम्बन्धी एक अनुभागमें एक काल में कौन सी गति उपयुक्त है' इस प्रकार इस सूत्रवचनमें यह अर्थ निबद्ध देखा जाता है। अब 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' इस प्रकार गाथासूत्रके इस अंशका आश्रय कर दो कषायोंमें उपयुक्त, तीन कषायोंमें उपयुक्त अथवा चार कषायोंमें उपयुक्त कौन-कौन सी गति होती है इस प्रकार इन तीन पृच्छा निर्देशों का अनुगम करना चाहिए, क्योंकि यहाँपर गाथामें आये हुए 'विसदृश उपयोग' पदका अर्थ एक कषायके उपयोगसे विपर्यास अर्थात् भिन्न प्रकारके लक्षणवाला उपयोग ग्रहण किया गया है। इस प्रकारकी पृच्छासे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थका कथन करनेके लिए यह गाथासूत्र आया है इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह पृच्छासूत्र है इस प्रकार कहा है। अब इस प्रकारकी पृच्छाओंका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध है
* अब आगे निर्णय करते हैं।
$ १४५. 'तदो' अर्थात् पृच्छाओंके अनुगमके अनन्तर अब इनका 'णिदरिसणं' अर्थात् निर्णय करके बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* वह कैसे ?
* नरकगति और देवगतिमें ये विकल्प होते हैं, शेष गतियाँ नियमसे चारों कषायोंमें उपयुक्त होती हैं।
१४६ ये अनन्तर पूर्व कहे गये पृच्छा विकल्प और उनके उत्तरस्वरूप कहे गये विकल्प नरकगति और देवगतिमें हैं, क्योंकि नरकगतिमें तो क्रोधकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशि कालके माहात्म्यके कारण सबसे अधिक होकर निरन्तर राशिपनेका अनुभव करती है ।