Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
६६
होदि।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[उवजोगो ७ च गदी विसरिसमुवजुजदे का च ॥ त्ति ।
१३८. एसा सा चउत्थी गाहा त्ति वृत्तं होइ । एत्थ 'इदि'सद्दो गाहासुत्तसरूवावहारणफलो। एसा च गाहा पुच्छामुहेण संगहियासेसपयदत्थपरूवणादो तदो पुच्छासुत्तमिदि जाणावणट्ठमाह__ * एवं सव्वं पुच्छासुतं ।
$ १३९. एदं सव्वमणंतरणिद्दिट्टगाहासुत्तं सपुव्वपच्छद्धं पुच्छासुत्तमिदि भणिदं * एत्थ विहासाए दोण्णि उवएसा। .
$ १४०. एत्थ एदम्मि गाहासुत्ते विहासिज्जमाणे दोण्णि उवएसा अवलंबेयव्वा, परमगुरुसंपदायापरिच्चागेणेव वक्खाणपउत्तीए णाइयत्तादो' त्ति भणिदं होदि ।
* एक्केण उवएसेण जो कसायो सो अणुभागो।
$ १४१. एक्केण उवएसेण अपवाइज्जतेणुवएसेणे त्ति वुत्तं होइ । कुदो एदं णव्वदे ? पवाइज्जतोवएसस्स सणामणिद्देसेण पुरदो भणिस्समाणत्तादो। तत्थ जो कसायो सो अणुभागो त्ति भणंतस्साहिप्पायो ण कसायादो वदिरित्तो अणुभागो अत्थि, होती है तथा कौन सी गति विसदृशरूपसे उपयुक्त होती है ।
$ १३८. यह वह चौथी गाथा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । गाथासूत्रके स्वरूपका अवधारण करनेके प्रयोजनसे यहाँ 'इदि' शब्द आया है। यह गाथा पृच्छामुखसे समस्त प्रकृत अर्थका संग्रह कर कथन करती है, इसलिए यह पृच्छासूत्र है इस बातका ज्ञान करानेके लिए कहते हैं
* यह सब पृच्छासूत्र है।
६ १३९. अपने पूर्वार्ध और उत्तराध सहित अनंतर पूर्व कहा गया यह समस्त गाथासूत्र पृच्छासूत्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इस गाथाकी अर्थविभाषामें दो उपदेश पाये जाते हैं।
१४०. एत्थ अर्थात् इस गाथासूत्रका व्याख्यान करते समय दो उपदेशोंका अवलम्बन लेना चाहिए, क्योंकि परम गुरुसम्प्रदायका त्याग किये बिना ही व्याख्यानकी प्रवृत्तिका होना न्यायप्राप्त है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* एक उपदेशके अनुसार जो कषाय है वही अनुभाग है।
१४१. एक उपदेशके अनुसार अर्थात् अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान–प्रवाह्यमान उपदेशका अपने नाम के साथ चूर्णिसूत्रकार आगे स्वयं कथन करेंगे इससे उक्त तथ्य जाना जाता है।
प्रकृतमें 'जो कषाय है वही अनुभाग है' ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि अनुभाग १. ता०प्रतौ -पउत्तीए विरोहाभाबादो इति पाठः ।