Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६६ ]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा जुत्तजीवरासीए णिरंतरभावो दट्ठव्यो। तदो दोण्हमेदेसिमुभयत्थ णिरंतररासित्तादो एगकसायोवजुत्ताणं धुवभाव कादूण सेसकसाएहिं सह दु-ति-चदुसंजोगा वत्तव्वा त्ति । एदेण कारणेण णिरय-देवगदीओ एगकसायोवजुत्ताओ दुकसायोवजुत्ताओ तिकसायोवजुत्ताओ चदुकसायोवजुत्ताओ वा होति त्ति सिद्धं । सेसगदीओ णियमा एवं भणिदे तिरिक्ख-मणुसगदीओ णियमेण चदुकसायोवजुत्ताओ होति त्ति घेत्तव्वं । किं कारणं ? तत्थ चउण्हं पि कसायरासीणं धुवभावोवलंभादो । एवमेदं परूविय संपहि णिरयदेवगदीसु चउण्हं पि वियप्पाणं संभवे तत्थ कदमेण कसारण कदमो वियप्पो समुप्पजदि त्ति एदस्सत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं पबंधमुवइसइ_*णिरयगईए जइ एक्को कसायों णियमा कोहो ।
$ १४७. कुदो ? कोहोवजोगकालस्स तत्थ सव्वबहुत्तोवएसेण सव्वस्स जेरइयरासिस्स तत्थेवावट्ठाणे विरोहाभावादो। ण सेसकसायोवजोगद्धासु वि तहासंभवासंका कायव्वा, तहाविहसंभवस्स पुव्वुत्तकालप्पाबहुअसुत्तेण बाहियत्तादो ।
* जदि दुकसायो कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो।
$ १४८. दोण्हं कसायाणं समाहारेण जणिदो उवजोगो दुकसायो ति भण्णदे। सो कथमुप्पजदि त्ति भणिदे 'कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो' त्ति णिद्दिष्टुं । कोहरासिं इसी प्रकार देवगतिमें भी लोभकषायमें उपयुक्त हुई जीवराशिको निरन्तर जानना चाहिए। इसलिए क्रमसे ये दोनों राशियाँ नरकगति और देवगतिमें निरन्तर राशि होनेसे एक कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंको ध्रुव करके शेष कषायोंके साथ दो संयोगी, तीन संयोगी और चार संयोगी भंग कहना चाहिए। इस कारणसे नरकगति और देवगति एक कषाय-उपयुक्त, दो कषाय-उपयुक्त, तीन कषाय-उपयुक्त अथवा चार कषाय-उपयुक्त होती हैं यह सिद्ध हुआ । शेष गतियाँ नियमसे ऐसा कहने पर तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति नियमसे चार कषायोंमें उपयुक्त होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इन दो गतियोंमें चारों ही कषायराशियाँ ध्रुवरूपसे पाई जाती हैं। इस प्रकार उक्त चूर्णिसूत्रकी व्याख्या करके अब नरकगति और देवगतिमें चारों ही विकल्पोंके सम्भव होनेपर वहाँ किस कषायके साथ कौन विकल्प बनता है इस अर्थको स्पष्ट करनेके लिए उपरिम प्रबन्धका उपदेश करते हैं
* नरकगतिमें यदि एक कषाय है तो नियमसे क्रोधकषाय होती है।
६ १४७. क्योंकि क्रोधकषायके उपयोग कालका वहाँ सबसे अधिक उपदेश होनेके कारण समस्त नारकराशिका क्रोधकषायमें अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता । पर इससे शेष कषायोंके उपयोग कालोंमें भी उस प्रकारसे सम्भव होने की आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उस प्रकारका सम्भव पूर्वमें कहे गये अल्प-बहुत्व सूत्रसे बाधित हो जाता है ।
* यदि दो कषायोंका संयोग है तो क्रोधके साथ अन्यतर एक कषाय इस प्रकार दो कषायोंका संयोग होता है।
१४८. दो कषायोंके समाहारसे उत्पन्न हुआ उपयोग दो-कषाय ऐसा कहा जाता है। वह कैसे उत्पन्न होता है ऐसी पृच्छा होने पर 'कोहेण सह अण्णदरो दुसंजोगो'