Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६६ ]
च उत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
ततो पुधभूदस्स तस्साणुवलद्धीदो । अणुभागों कारणं कसायपरिणामो तक मिदि ताणं मेदो ण वोत्तुं जुत्तो, कज्जे कारणोवयारेण ताणमेयत्तन्भुवगमादो | संपहि दस्सेव अत्थस्स पदंसणट्ठमिदमाह -
* कोधो कोधाणुभागो ।
१४२. क्रोध एव क्रोधानुभागो नान्यः कश्चिदित्यर्थः ।
* एवं माण- माया-लोभाणं ।
$ १४३. यथा क्रोध एव क्रोधानुभाग इति समर्थितमेवं मान एव मानानुभागो, मायैव मायानुभागो, लोभ एव लोभानुभाग इति वक्तव्यं, कार्यकारणयोरभेदोपचारात् ।
* तदो का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा दुकसायोवजुत्ता वा तिकसायोवजुत्ता वा चदुकसायोवजुत्ता वा त्ति एवं पुच्छासुतं । $ १४४. जदो एवं कसायो चेवाणुभागो त्ति समत्थिदं तदो 'एकम्हि दु अणुभागे' इच्चादिपुच्छासुत्तस्स एवमणुगमो कायव्वो । तं जहा — णिरयादिगदीणं मज्झे का च गदी एगसमएण एगकसायोवजुत्ता वा होदि ति एसा पढमा पुच्छा, 'एक म्हि
कषायसे जुदा नहीं है, क्योंकि कषायसे पृथकू वह पाया नहीं जाता ।
शंका –अनुभाग कारण है और कषाय परिणाम उसका कार्य है इस प्रकार इनमें भेद है ?
समाधान —ऐसा कहना ठीक नहीं, कार्यमें कारणका उपचार करके उन दोनोंमें अपृथक्पना स्वीकार किया गया है। अब इसी अर्थको दिखलानेके लिए कहते हैं
* क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है ।
$ १४२. क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है, अन्य कुछ नहीं यह इस सूत्रका अर्थ है । * इसी प्रकार लोभ, मान और मायाकषायकी अपेक्षा कहना चाहिए ।
$ १४३. जिस प्रकार क्रोधकषाय ही क्रोधानुभाग है इस प्रकार समर्थन किया है इसी प्रकार मानकषाय ही मानानुभाग है, मायाकषाय ही मायानुभाग है और लोभकषाय ही लोभानुभाग है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि यहाँ पर कार्य और कारणमें अभेदका उपचार किया गया है ।
* इसलिए कौन गति एक समय में एक कषायमें उपयुक्त है, दो कषायों में उपयुक्त है, तीन कषायोंमें उपयुक्त है अथवा चारों कषायोंमें उपयुक्त है इस प्रकार यह पृच्छासूत्र है ।
$ १४४• यतः कषाय ही अनुभाग है इसका उक्त प्रकारसे समर्थन किया है, अतः 'एकहि दु अणुभागे' इत्यादि पृच्छासूत्रका इस प्रकार अनुगम करना चाहिए । यथानरकादि गतियों में से कौन सी गति एक समय में एक कषाय में उपयुक्त हैं' यह प्रथम पृच्छा