Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ णोमाणववएसारिहंतेणावलंबणादो । पुणो इमो चेव णिरुद्धजीवरासी जम्मि काले थोवो माणोवजुत्तो थोवो च कोह-माया-लोमेसु जहासंभवमुवजुत्तो होदण परिणदो दिट्ठो सो मिस्सयकालो णाम । तम्हा माणोवजुत्ताणमेसो सत्थाणविसयो तिविहो कालो समदिक्कतो त्ति सम्ममवहारिदं । ण केवलमेसो तिविहो चेव कालपरिवत्तो विवक्खियजीवाणं, किंतु अण्णो वि कालपरिवत्तो परत्थाणविसयो समइंकतो त्ति पदुप्पायणढमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* कोहे च तिविहो कालो।
$ २०२. तस्सेव वट्टमाणसमयमाणोवजुत्तजीवरासिस्स कोहे वि विविहो कालो अइक्कतो त्ति वुत्तं होइ । तं जहा–कोहकालो जोकोहकालो मिस्सयकालो चेदि । तत्थ जम्मि समये सो चेव वट्टमाणसमयमाणोवजुत्तजीवरासी कसायंतरपरिहारेण कोहकसाएणेव परिणदो होदणच्छिदो सो माणोवजुत्ताणं कोहकालो त्ति भण्णदे । पुणो एसो चेव जीवरासी जम्मि कालविसेसे कोह-माणेसु एक्केण वि जीवेणाहोदूण माया-लोभेसु चेव परिणदो सो माणोवजुत्ताणं णोकोहकालो त्ति विण्णायदे । पुणो माणे एगो वि जीवो अहोदण थोवो कोहोवजुत्तो थोवो च माया-लोभोवजुत्तो होदूण जम्हि काले परिणदो सो माणोवजुत्ताणं कोहमिस्सयकालो ति भण्णदे । अहवा णोकोह-मिस्सयकालेसु माणेण वि परिणामिदे ण दोसो, तेण वि परिणदस्स णोकोह
है । तथा यही विवक्षित जीवराशि जिस कालमें कुछ मानमें उपयुक्त होकर और कुछ क्रोध, माया और लोभमें यथासम्भव उपयुक्त होकर परिणत दिखाई दी उसकी मिश्रकाल संज्ञा है। इसलिए मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका स्वस्थानविषयक यह तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ यह सम्यक् प्रकारसे निश्चित किया। विवक्षित जीवोंका तीन प्रकारका केवल यही कालपरिवर्तन नहीं है किन्तु परस्थानविषयक अन्य भी कालपरिवर्तन व्यतीत हुआ है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* क्रोधकषायमें तीन प्रकारका काल होता है ।
६ २०२. वर्तमान समयमें मानमें उपयुक्त हुई उसी जीवराशिका क्रोधकषायमें भी तीन प्रकारका काल व्यतीत हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा-क्रोधकाल नोक्रोधकाल और मिश्रकाल । उनमेंसे वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हुई वही जीवराशि जिस समयमें अन्य कषायोंका परिहार कर क्रोधकषायरूपसे परिणत होकर रही, वह मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवों का क्रोधकाल कहा जाता है । पुनः यही जीवराशि जिस कालविशेषमें एक भी जीव क्रोध और मानरूप न होकर माया और लोभ रूपसे ही परिणत हुई, वह मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका नोक्रोधकाल जाना जाता है। पुनः एक भी जीव मानरूप न होकर थोड़ेसे जीव क्रोधकषायमें उपयुक्त होकर और थोड़ेसे जीव माया और लोभकषायमें उपयुक्त होकर जिस कालमें परिणत हुए, वह मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंका क्रोधकी अपेक्षा मिश्रकाल कहा जाता है । अथवा नोक्रोधकाल और मिश्रकाल इनमें मानकषायरूपसे भी परिणमावे, दोष नहीं है, क्योंकि