Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६४ ]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा मुवजोगकालो णिव्वाघादेण जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तमिदि पुरदो भणिहिदि। एसो एगो अत्थो।
६४. 'को व केणधिगो' एवं भणिदे कोहादिकसायाणमुवजोगकाला किमण्णोणं सरिसा विसरिसा वा त्ति अप्पाबहअविधी पुच्छिदो होइ । एवमेसो विदियो अत्थो।
६५. 'को वा कम्हि कसाए' एवं भणिदे को वा जीवो णिरयादिमग्गणाविसेसपडिबद्धो कोहादीणं मज्झे कदमम्मि कसाए 'अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' मुहुर्मुहुरुपयोगेन परिणत इत्यर्थः। णेरइयो अप्पणो भवहिदीए अब्भंतरे किं कोहोवजोगेण बहुवारं परिणमइ, आहो माणोवजोगेण मायोवजोगेण लोभोवजोगेण वा ? एवं सेसासु वि गदीसु पुच्छा कायव्वा त्ति एसो एदस्स भावत्थो। एदिस्से पुच्छाए णिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तावलंबणेण कस्सामो। एवमेसो तदियो अत्थो। तदो एसा गाहा एवंविहेसु तिसु अत्थेसु पडिबद्धा त्ति सिद्धं । संपहि जहावसरपत्ताए विदियगाहाए अवयारं कस्सामो। तं जहा(११) एक्कम्हि भवग्गहणे एक्ककसायम्हि कदि च उवजोगा।
एकम्हि य उवजोगे एककसाए कदि भवा च ॥६४॥
६६. संपहि एदिस्से विदियगाहाए अत्थे भण्णमाणे पुव्वद्धे ताव एगं भवग्गहणमाधारं कादूण पुणो तम्मि एगकसाओवजोगा केत्तिया होति त्ति उवजोगे आधेयभूदे या एक समयप्रमाण काल तक उक्त उपयोग रहता है ऐसी पृच्छा की गई है। ऐसा पूछनेपर सब कषायोंका निर्व्याघातरूपसे जघन्य और उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है यह आगे कहेंगे। यह एक अर्थ है।
६४. 'को व केणधिगो' ऐसा कहने पर क्रोधादि कषायोंके उपयोगकाल परस्पर क्या सदृश हैं या विसदृश ? यह अल्पबहुत्वविधि पूछी गई है । यह दूसरा अर्थ है।
६५. 'को वा कम्हि कसाए' ऐसा कहने पर नरकादि मार्गणाविशेषसे सम्बन्ध रखने वाला कौन जीव क्रोधादि कषायोंमें से किस कषायमें 'अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' पुनः पुनः उपयोगरूपसे परिणत होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। नारकी जीव अपनी भवस्थितिके भीतर क्या क्रोधके उपयोगसे बहुत बार परिणमता है अथवा मानोपयोगसे, मायोपयोगसे या लोभोपयोगसे बहुत बार परिणमता है ? इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी पृच्छा करनी चाहिए यह इस कथनका भावार्थ है। इस पृच्छाका निर्णय आगे चूर्णिसूत्रका अवल. म्बन लेकर करेंगे। इस प्रकार यह तीसरा अर्थ है। इस प्रकार यह गाथा इस प्रकारके तीन अर्थों में प्रतिबद्ध है यह सिद्ध हुआ। अब अवसर प्राप्त दूसरी गाथाका अवतार करेंगे। यथा
एक भवको आश्रय कर एक कषायमें कितने उपयोग होते हैं, उसी प्रकार एक कषायसम्बन्धी एक उपयोगमें कितने भव होते हैं ॥६४॥
$ ६. अब इस दूसरी गाथाके अर्थका कथन करते हुए पूर्वार्धमें उपयोगको आधेय