Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६३]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा * ओघेण ताव लोभो माया कोधो माणो त्ति असंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु सई लोभागरिसा आदिरेगा भवदि।
५६. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे-ओघेण ताव इमस्स कसायस्स अभिक्खमुवजोगवारा थोवा, इमस्स च कसायस्स अभिक्खमुवजोगवारा बहुगा त्ति परूवणं कस्सामो त्ति जाणावणट्ठमोघणिद्देसो एत्थ कओ । तत्थ वि तिरिक्ख-मणुसगईओ चेव पहाणभावेणावलंविय पयदपरूवणा कीरदे । तं जहा-तत्थ लोभो माया कोधो माणो त्ति एदीए परिवाडीए अवट्टिदसरूवाए असंखेज्जेसु आगरिसेसु गदेसु तदो एगवारं लोभागरिसा अदिरित्ता भवदि । कुदो एवं ? सहावदो। एत्थागरिसा त्ति वुत्ते परियदृणवारो त्ति गहेयव्वं । एवमेसो सुत्तस्स अवयवत्थो परूविदो। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरण?मिमा संदिद्विमुहेण समुदायत्थपरूवणा कीरदे । तं कथं ? लोभो माया कोधो मागो ११११। पुणो वि लोभो माया कोधो माणो त्ति ११११। एदेण विहिणा असंखेज्जेसु परियदृणवारेसु गदेसु तदो लोहो माया कोधो माणो होदूण पुणो लोभो माया ति मायाए द्विदजीवो कोधमगंतूण पुणो पडिणियत्तिय लोभमेव गदो। लोहेण सह अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मायमुल्लंघियण कोधं गदो। पच्छा माणं गदो । तदो चाहिं कसाएहिं अवट्ठिदपरिवाडीए असंखेज्जेसु वारेसु गदेसु एगवारं लोमागरिसो
* ओघसे लोभ, माया, क्रोध, मान इस परिपाटीसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके हो जाने पर एक बार लोभकषायका परिवर्तनवार अधिक होता है ।
६५६. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-सर्व प्रथम ओघसे इस कषायके पुनः पुनः उपयोगबार थोड़े होते हैं और इस कषायके पुनः पुनः उपयोगबार बहुत होते है इसका कथन करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्र में ओघपदका निर्देश किया है। उसमें भी तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिका ही प्रधानरूपसे अवलम्बन लेकर प्रकृत प्ररूपणा करते हैं। यथा-लोभ, माया, क्रोध, मान इस अवस्थितस्वरूप पारिपाटीसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके होनेपर उसके बाद एक बार लोभका परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। यहाँपर आगरिसा ऐसा कहनेपर परिवर्तनवार ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार यह सूत्रका अवयवार्थ कहा। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए संदृष्टिद्वारा यह समुदायार्थप्ररूपणा करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान--लोभ, माया, क्रोध, मान ११११। पुनः लोभ, माया, क्रोध, मान ११११। इस प्रकार इस विधिसे असंख्यात परिवर्तनवारोंके हो जानेपर उसके बाद लोभ, माया, क्रोध, मान होकर पुनः लोभ और मायाके होनेपर मायामें स्थित हुआ जीव क्रोधको प्राप्त हुए विना पुनः लौटकर लोभको ही प्राप्त हुआ। तब लोभके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पुनः मायाको उल्लंघन कर क्रोधको प्राप्त हुआ। इसके बाद मानको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चारों कषायोंके साथ अवस्थित परिपाटीद्वारा असंख्यात परिवर्तनवार होनेपर एकबार लोभका परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उसकी यह