Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६३]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा ५८. एवमेदासु समत्तासु तदो अण्णारिसी परिवाडी पारभदि ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* असंखेज्जेसु लोभागरिसेसु अदिरेगेसु गदेसु कोधागरिसेहिं मायागरिसा अदिरेगा होइ।
५९. एदस्स सुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । संपहि समुदायत्थो वुच्चदेतं जहा-पुन्वुत्तलोभपरिवाडीसु णिट्ठिदासु तदो लोभो माया कोधो माणो ११११ । पुणो वि लोभो माया कोहो माणो त्ति एदीए अवडिदपरिवाडीए असंखेज्जेसु वारेसु गदेसु तदो लोभो माया कोधो त्ति होदूण पुणो मायाए णियत्तिय तत्थंतोमुहत्तमच्छिय पुणो कोधमुल्लंघिय माणं गदो। एवं गदे कोधागरिसेहितो मायागरिसो एगवारमदिरित्तो लद्धो । तस्स संदिट्ठी २३२२ । पुणो ९६६६ एदेण विहिणा असंखेज्जाओ लोभपरिवाडीओ समाणिय तदो एगवारमणंतरपरूविदकमेण कोधागरिसेहिंतो मायागरिसो विदियवारमदिरित्तो लब्भदे २ ३ २ २। पुणो वि ताए चेव परिवाडीए एदाओ हो लेता है तब अन्तिम परिवर्तनके समय लोभ और मया होकर क्रोधको प्राप्त हुए बिना पुनः लोभको प्राप्त होता है। तथा अन्तर्मुहूर्त काल तक लोभके साथ रह कर मायाको उल्लंघनकर क्रमसे क्रोध और मानको प्राप्त होता है। इस प्रकार चारों कषायों द्वारा अवस्थित परिपाटीके क्रमसे असंख्यातवारोंके व्यतीत होनेपर लोभका एक परिवर्तनवार अधिक होता है । अवस्थित परिपाटीक्रमसे चारों कषायोंके असंख्यात परिवर्तनवार हुए और अन्तिम परिवर्तनवारके समय लोभका एक अतिरिक्त परिवर्तनवार हुआ इसे संदृष्टि द्वारा इस प्रकार दिखलाया गया है-३२२२। यह एक क्रम है। दूसरे क्रमके अनुसार असंख्यात परिवर्तनवारोंके होनेके बाद अन्तिम परिवर्तनवार होते समय लोभ, माया और क्रोध होकर पुनः लौटकर लोभ हुआ तथा माया और क्रोधको उल्लंघनकर मानको प्राप्त हुआ । इस प्रकार पूर्वोक्त विधिसे बार-बार परिवर्तनवार होकर असंख्यात लोभ परिपाटियाँ अतिरिक्त प्राप्त होती हैं । यहाँ सब मिलाकर जितनी परिपाटियाँ हुई हैं उन्हें संदृष्टि द्वारा इस प्रकार दिखलाया गया है-९६६६।।
५८. इस प्रकार इन परिपाटियोंके समाप्त होनेपर अन्य प्रकारकी परिपाटी प्रारम्भ होती है इसका ज्ञान करानेके लिए
* इस प्रकार लोभसम्बन्धी असंख्यात परिवर्तनवारोंके अतिरिक्त हो जाने पर क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्बन्धी परिवर्तनवार अतिरिक्त होता है ।
५९. इस सूत्रके अवयवोंकी अर्थ प्ररूपणा सुगम है। अब समुच्चय अर्थ कहते हैं। यथा-पूर्वोक्त लोभपरिपाटियोंके समाप्त हो जानेपर उसके बाद लोभ, माया, क्रोध, मान १ ११ १ होकर फिर भी लोभ, माया, क्रोध, मान इस अवस्थित परिपाटीके अनुसार असंख्यातवार हो जानेपर फिर लोभ, माया, क्रोध होकर पुनः मायामें लौटकर और उसरूप अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः क्रोधको उल्लंघनकर मानको प्राप्त हुआ। ऐसा होनेपर क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्वन्धी परिवर्तनवार एकवार अतिरिक्त प्राप्त हुआ। उसकी संदृष्टि-२ ३ २ २ है। पुनः पूर्वोक्त ९६ ६ ६ इस विधिसे असंख्यात लोभ परिपाटियोंको समाप्त कर उसके बाद एकबार अनन्तर प्ररूपितक्रमसे क्रोधसम्बन्धी परिवर्तनवारोंसे मायासम्बन्धी परिवर्तनवार दूसरी बार अतिरिक्त प्राप्त होता है। उसकी संदृष्टि