Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ जोगा संखेजा होदूण लब्भंति जाव तप्पाओग्गसंखेजवस्सियभवग्गहणं ति । पुणो तत्थुक्कस्ससंखेज्जमेत्ता कोहोवजोगा होदूण तत्तो पहुडि उवरिमसव्यभववियप्पेसु संखेज्जवस्सिएसु असंखेज्जवस्सिएसु च असंखेज्जा चेव होति । किं कारणं ? तप्पाओग्गसंखेज्जवस्साणं सव्वोवजोगे एगपुंजं कादण पुणो सरिस-बेभागे करिय तत्थेगभागं घेतूणुकस्ससंखेज्जमेत्ता कोहोवजोगा लन्भंति । सेसेगभागो वि माणादिउवजोगा होति । एदेण कारणेण एदं भवग्गहणं संखेज्जोवजोगाणं पज्जवसाणत्तेण गहियं । एदस्स तप्पाओग्गसंखेज्जवस्समेत्तभवग्गहणस्स पमाणणिण्णयमुवरि कस्सामो । एवमेसा कोहोवजोगाणं परूवणा कया । संपहि माणोवजोगाणं पयदत्थगवेसणट्ठमाह ।
* माणोवजोगा संखेजा वा असंखेजा वा।
5 ८८. 'एक्कम्मि गैरइयभवग्गहणे' इदि अहियारसंबंधो एत्य कायव्यो । सेसं सुगमं ।
* एवं सेसाणं पि।
६८९. जहा कोह-माणाणं पयदपरूवणा कया एवं माया-लोभाणं पि वत्तव्वं, विसेसाभावादो। एवं णिरयगदीए पयदपरूवणं कादूण सेसासु वि गदीसु एसो चेव कमो अणुगंतव्यो त्ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तमाहदस हजार वर्षसे लेकर तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले भवमें क्रोधकषायके उपयोग संख्यात ही प्राप्त होते हैं। पुनः वहाँ क्रोधकषायके उपयोग उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण प्राप्त होकर तदनन्तर आगेके सब संख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले और असंख्यात वर्षप्रमाण आयुवाले भवके भेदोंमें असंख्यात ही क्रोधसम्बन्धी उपयोग होते हैं।
शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-तात्प्रायोग्य संख्यात वर्षों के भीतर प्राप्त हुए सब कषायोंसम्बन्धी उपयोगोंका एक पुञ्ज करके पुनः उसके परस्पर समान दो भाग करके उनमें से एक भागको ग्रहण कर उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण क्रोधकषायसम्बन्धी उपयोग होते हैं। शेष एक भागप्रमाण उपयोग भी मानादिकषायसम्बन्धी होते हैं। इस कारणसे इस भवको, संख्यात उपयोगोंकी यहाँ परिसमाप्ति हो जाती है, यह बतलानेके लिए ग्रहण किया है। इस तात्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण भवके प्रमाणका निर्णय आगे करेंगे। इस प्रकार यह क्रोधके उपयोगोंका कथन किया। अब मानसम्बन्धी उपयोगोंके प्रकृत अर्थका अनुसन्धान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मानकषायके उपयोग संख्यात भी होते हैं और असंख्यात भी होते हैं ।
$ ८८. नारियोंके एक भवका अधिकार होनेसे 'एक्कम्मि भवग्गहणे' इस पदका यहाँ पर सम्बन्ध कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
* इसी प्रकार शेष कषायोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिए ।
६८९. जिस प्रकार क्रोध और मानकषायकी प्रकृत प्ररूपणा की है उसी प्रकार माया और लोभ कषायोंकी भी करनी चाहिए। इस प्रकार नरकगतिमें प्रकृत विषयकी प्ररूपणा करके शेष गतियोंमें यही क्रम जानना चाहिए इस तथ्यका कथन करनेके लिए अर्पणासूत्रको