Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६४ ]
विदियगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
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$ १०१. कुदो १ तेसिं तण्णांतरीयत्तादो ।
* लोभोवजोगा भजियव्वा ।
$ १०२. किं कारणं ? मायोवजोगेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जमे तेसु जादेसु तत्तो संखेज्जगुणमद्वाणमुवरि गंतूण लोभस्सासंखेज्जोवजोगाणमुप्पत्तिदंसणादो ।
* जत्थ लोहोवजोगा असंखेज्जा तत्थ कोह- माण- मायोवजोगा णियमा असंखेज्जा ।
$ १०३. जत्थ णिरयभवग्गहणे लोभोवजोगा असंखेज्जा जादा तम्मि णिरुद्धे सेकसायोवजोगा नियमा असंखेज्जा होंति, तेसिमसंखेज्जत्ताभावे णिरुद्ध लोभ कसायस्स वि असंखेज्जोवजोगाणमणुप्पत्तीदो । एवं ताव णिरयगदीए सव्वेसिं कसायाणं संखेज्जासंखेज्जोवजोगाणं षादेक्कं णिरुंभणं काढूण सण्णियासविही परूविदो । संपहि एसो चैव सण्णियासविसेसो देवगदीए विवजाससरूवेण जोजेयव्वो त्ति पदुप्पायणट्ठमिदमाह - * जहा णेरइयाणं कोहोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं लोभोवजोगाणं वियप्पा ।
* जहा णेरइयाणं माणोवजोगाणं वियप्पा तहा देवाणं मायोवजोगाणं वियप्पा |
$ १०१. क्योंकि वे उनके अविनाभावो हैं । अर्थात् क्रोध और मानके उपयोग असंख्यात होनेपर तत्प्रायोग्य स्थान जाकर ही मायाके उपयोग असंख्यात होते हैं, इसलिए मायके उपयोग असंख्यात होने पर क्रोध और मानके उपयोग असंख्यात होंगे ही यह नियम है ऐसा इनमें अविनाभाव है ।
* लोभकषायके उपयोग भजनीय हैं ।
$ १०२. क्योंकि मायाकषायके उपयोगोंके जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण होनेपर वहाँसे संख्यातगुणे स्थान आगे जाकर लोभकषायके असंख्यात उपयोगोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । * जिस भवमें लोभकषायके उपयोग असंख्यात होते हैं वहाँ क्रोध, मान और मायाकषायके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं ।
$ १०३. नारकियोंके जिस भवमें लोभकषायके उपयोग असंख्यात हो जाते हैं वहाँ शेष कषायोंके उपयोग नियमसे असंख्यात होते हैं, क्योंकि यदि वे असंख्यात न हों तो विवक्षित लोभकषायके भी असंख्यात उपयोगोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार नरकगतिमें सभी कषायोंके संख्यात और असंख्यात उपयोगोंमेंसे प्रत्येकको विवक्षित कर सन्निकर्षविधि कही। अब इसी सन्निकर्षविशेषको देवगतिमें विपरीतरूपसे लगा लेना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए इस प्रबन्धको कहते हैं
* जिस प्रकार नारकियोंके क्रोधकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं। उसी प्रकार देवोंके लोभकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
* जिस प्रकार नारकियोंके मानकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं उसी प्रकार देवोंके मायाकषायके उपयोगोंके सन्निकर्षविकल्प होते हैं ।
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