Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो ७ कोहो होदण माणमल्लंघिय माया एगवारं परिवत्तदि ३ २१ । पुणो वि पुव्वुत्तविहिणा चेव कोहो माणो त्ति संखेजपरियट्टणवारे गंतूण पुणो पच्छिमे वारे कोहो होदूण माणमुल्लंघिय मायाए एगवारं परिवत्तदि ३२ १० । पुणो वि एदेणेव विहिणा मायागरिसाणं पि संखेजसहस्सवारेसु समत्तेसु तदो तदणंतरपरिवाडीए कोहो होदण माणं मायं च समुल्लंघिय सई लोभेण परिणमइ ३ २ ० १ । पुणो वि एदेण विहिणा ३२१०
: मायागरिसेसु संखेजसहस्सवारं परिवत्तिदेसु पुणो कोहो होदूण माणं मायं च, वोलिय एगवारं लोभेण परिणमइ ३ २ ० १ । पुणो वि एदेणेव कमेण
संखेजसहस्समेत्तमायापरिवत्तेसु गदेसु एगवारं लोभो परिवत्तदि। ३ २ ० १ । एवं णेदव्वं जाव पुव्वणिरुद्धाउद्विदिचरिमसमयोत्ति । एत्थ सव्वसमासेण संदिट्ठी एसा
३ २ १ ० ३ २ १ ० ३ २ १ ० एत्थ कोह-माण-माया लोभा३ २ १ ० ३ २ १ ० ३२१० गरिसाणं जहाकमं सव्वपिंडो एसो २७
३ २ ० १ ३२ ० १ ३ २ ० १ १८ ६ ३ । एदेसिमप्पाबहुअं पुरदो वत्तइस्सामो। वारमें क्रोध होकर मानको उल्लंघन कर एक वार मायारूप परिवर्तन होता है। उसकी संदृष्टि है- ३ २ १०। फिर भी पूर्वोक्त विधिसे ही क्रोध, मान इस प्रकार संख्यात हजार परिवर्तनवारोंके हो जानेपर पुनः अन्तिम वारमें क्रोध होकर मानको उल्लंघन कर मायारूपसे एक बार परिवर्तन होता है। इसकी संदृष्टि है- ३ २ १ ० । फिर भी इसी पूर्वोक्त विधिसे संख्यात हजार मायासम्बन्धी परिवर्तनवारोंके भी समाप्त हो जानेपर उसके अनन्तर जो परिपाटी होती है उसमें क्रोध होकर तथा मान और मायाको उल्लंघन कर एक वार लोभ रूपसे परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी विधिसे ३२१० माया परिवर्तनवारोंके. संख्यात हजार वार परिवर्तित होनेपर पुनः क्रोध होकर तथा मान और मायाको उल्लंघन कर एक वार लोभरूपसे परिणमता है । उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। फिर भी इसी क्रमसे ३२१ : मायाके परिवर्तनवारोंके संख्यात हजार वार हो जाने पर एक वार लोभरूप परिणमता है। उसकी संदृष्टि ३ २ ० १ है। इस प्रकार पहले प्राप्त हुई आयुस्थितिके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। यहाँ सबकी समुच्यरूप संदृष्टि यह है
३ २ १ ० ३ २ १ ० ३ २ १ ० यहाँ क्रोध, मान, माया और लोभके ३२१० ३२१० ३२१.० परिवर्तनवारोंका पूरा योग यह है
क्रो० २७ मा० १८ मा०६ लोभ ३। ३ २ ० १ ३ २ ० १ ३ २ ० १ इनका अल्पबहुत्व आगे कहेंगे।
विशेषार्थ-नरकगतिमें कषायोंके परिवर्तनका क्रम क्या है इसका विस्तृत रूपसे विचार यहाँ पर किया गया है। नारकी जीव अत्यन्त पापबहुल होते हैं, इसलिए उनमें क्रोध और मानकी बहुलता होती है। हजारों बार जब क्रोध, मान पुनः क्रोध, मान रूप परिणाम हो लेते हैं तब क्रोधके बाद मानरूप परिणाम न होकर एक बार मायारूप परि