Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६६]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा णाओ' होति त्ति एदेण गाहापुव्वद्धेण कालभावोवजोगवग्गणाणं पमाणपरूवणमोघेण सूचिदं । 'कदरिस्से च गदीए.' एदेण वि पच्छिमद्धेण तासिं चेवोवजोगवग्गणाणेमादेसपरूवणा सूचिदा । तदो एवंविहत्थविसेसपरूवणट्ठमेसा गाहा समोइण्णा ति सिद्धं । संपहि चउत्थगाहाए अवयारं कस्सामो । तं जहा(१३) एक्कम्हि य अणभागे एककसायम्मि एक्ककालेण ।
उवजुत्ता का च गदी विसरिसमुवजुज्जदे का च ॥६६॥
$१०. एसा चउत्थी गाहा। संपहि एदिस्से अस्थपरूवणे कीरमाणे दोहिं उवदेसेहिं इमं चउत्थगाहं वक्खाणेति । तत्थ अपवाइज्जतेणुवदेसेण भण्णमाणे 'एकम्मि य अणुभागे एककसायम्मि' ति भणिदे जो कसायो सो चेवाणुभागो जो अणुभागो सो चेव कसायो ति एदेणहिप्पाएण जो कोध-माण-माया-लोभपरिणामो सो चेवाणुभागो ति ग.............. 'यत्तविवक्खावलंबणादो। तेण एगम्हि चेव कसाए अणुभागसण्णिदे एककालेणुवजुत्ता का गदी होदि । कदरिस्से गदीए सव्वे जीवा कोहादिकसायाणमेगदरकसायम्मि चेव एगसमएणुवजुत्ताओ लब्भंति त्ति पुच्छिदं होदि । 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' एवं भणिदे दोसु तिसु चदुसु वा कसाएसु एककालेणुवजुत्ता का च गदी ए'... ' 'पुच्छा कदा होइ । एत्थ 'एक्ककालेणे त्ति' वुत्ते
और भावोपयोगवर्गणाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा ओघसे सूचित की गई है। तथा 'कदरिस्से च गदीए०' गाथाके इस उत्तरार्ध द्वारा भी उन्हीं उपयोगवर्गणाओंकी आदेशप्ररूपणा सूचित की गई है। इसलिए इस प्रकारके अर्थ विशेषका कथन करनेके लिए यह गाथा अवतीर्ण हुई है यह सिद्ध हुआ । अब चौथी गाथाका अवतार करेंगे । यथा
___ * एक अनुभागमें और एक कषायमें एक समयमें कौनसी गति सदृशरूपसे उपयुक्त होती है और कौनसी गति विसदृशरूपसे उपयुक्त होती है ॥६६॥
६ १०. यह चौथी गाथा है । अब इसके अर्थका कथन करने पर दो उपदेशोंके द्वारा इसका व्याख्यान करते हैं-उनमेंसे अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार कथन करने पर 'एक्कम्मि य अणुभागे एक्ककसायम्मि' ऐसा कहने पर जो कषाय है वही अनुभाग है और जो अनुभाग है वही कषाय है इस प्रकार इस अभिप्रायके अनुसार जो क्रोध, मान, माया और लोभपरिणाम है वही अनुभाग है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ पर उन दोनों में एकत्व विवक्षाका अवलम्बन लिया गया है। इसलिए अनुभागसंज्ञावाले एक ही कषायमें एक समयमें उपयुक्त हुई कौनसी गति है ? किस गतिमें क्रोधादि कषायोंमेंसे किसी एक कषायमें ही एक समयमें उपयुक्त हुए सब जीव पाये जाते हैं यह यहाँ पर पृच्छा की गई है। 'विसरिसमवजज्जदे का च' ऐसा कहने पर दो, तीन या चार कषायोंमें एक समयमें उपयक्त हई कौनसी गति होती है इस प्रकारकी यहाँ पृच्छा की गई है । यहाँ गाथामें 'एक्ककालेण' ऐसा
१. मूलप्रतौ चेवोवजोगवग्गणाण- इत्यत्र 'वजोग' इति पाठः त्रुटितः । ता० प्रतौ अयं पाठः नास्ति ।