Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ उवजोगो ७ $ १५. एसा. सत्तमी गाहा पुव्वद्धेण चउण्हं कसायाणं कालोवजोगवग्गणासु भावोवजोगवग्गणासु च जीवेहिं विरहिदाविरहिदट्ठाणाणमोघादेसेहि विसेसियूण परूवगट्ठमोइण्णा। पच्छद्धेण वि चदुकसायोवजुत्तजीवाणं चदुगदिसंबंधेण तीहिं सेढीहिं अप्पाबहुअपरूवणट्ठमवइण्णा । एवमेदेसु दोसु अत्थेसु एसा गाहा पडिबद्धा । संपहि एदिस्से पदच्छेदमुहेण किंचि अत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा—'उवजोगवग्गणाहि य' एत्थुवजोगवग्गणागहणेण दुविहोवजोगवग्गणासहचरिदाणं जीवाणं गहणं कायव्वं, 'साहचर्यात्ताच्छब्द्यमिति' न्यायात् । तेण उवजोगवग्गणाहि 'काहि' केत्तियमेत्ताहिं 'अविरहिदं' असुण्णं कं ठाणमुवलब्भइ ? 'विरहिदं चावि' सुण्णं वा होदूण कं ठाणमुवलब्भइ त्ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो । अत एतदुक्तं भवति–दुविहाओ उवजोगवग्गणाओ कसायउदयट्ठाणाणि च उवजोगद्धट्ठाणाणि च । एदेसु केत्तिएहिं कालोवजोगवग्गणाजीवेहिं भावोवजोगवग्गणाजीवेहिं वा कं ठाणमसुण्णं होदूण लब्भइ, कं वा ठाणं तेहिं चेव दुविहोवजोगवग्गणासहचरिदजीवेहिं सुण्णं होदूण लब्भइ त्ति एवंविहसुण्णासुण्णट्ठाणाणमोघादेसेहिं विसेसियूण परूवणट्ठमेसो गाहापुव्वद्धो समोइण्णो । . तहा 'पढमसमयोवजुत्तेहिं०' एदेण वि गाहापच्छिमद्धेण गदीओ अस्सियूण कोहादिकसायोवजोगजुत्ताणं तिविहाए सेढीए थोवबहुत्तपरूवणं सूचिदं । ण च अट्ठसु अणियोगद्दारेसु पुव्वं परूविदप्पाबहुएणेदस्स पुणरुत्तभावो आसंकणिज्जो, तत्थ सामण्णेण परूविदप्पाबहुअस्स
__१५. यह सातवीं गाथा पूर्वार्धके द्वारा चार कषायोंके कालोपयोगवर्गणाओंमें और भावोपयोगवर्गणाओंमें जीवोंसे रहित और सहित स्थानोंका ओघ और आदेशकी उपेक्षा कथन करनेके लिए आई है। तथा उत्तरार्धके द्वारा भी चार कषायोंसे उपयुक्त जीवोंके चारों गतियोंके सम्बन्धसे तीन श्रेणियोंके द्वारा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आई है। इस प्रकार इन दो अर्थो में यह गाथा निबद्ध है। अब इसके पदच्छेदद्वारा कुछ अर्थका विवरण करते हैं। यया-'उवजोगवग्गणाहि य' यहाँ उपयोगवर्गणा पदके ग्रहण करनेसे दो प्रकारकी उपयोगवर्गणाओंसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि साहचर्यसे उस शब्द द्वारा प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है ऐसा न्याय है। इसलिए 'काहि' कितनी ही उपयोगवर्गणाओंसे 'अविरहिद' युक्त कौन स्थान प्राप्त होता है तथा 'विरहिदं चावि' उपयोगवर्गणाओंसे रहित कौन स्थान प्राप्त होता है इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध करना चाहिए। इसलिए यह तात्पर्य हुआ कि उपयोगवगंणाएं जो दो प्रकारको है-कषाय उदयस्थान और उपयोगाध्वस्थान । इनमें कितने कालोपयोगवर्गणाजीवोंसे और भावोपयोगवर्गणाजीवोंसे कौन स्थान युक्त प्राप्त होता है और कौन स्थान उन दो प्रकारको वर्गणाओंसे युक्त जीवोंसे रहित प्राप्त होता है इस प्रकार शून्य और अशून्य स्थानोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा कथन करनेके लिए यह गाथाका पूर्वार्ध आया है। तथा 'पढमसमयोवजुत्तेहिं' गाथाके इस उत्तरार्ध द्वारा भी गतियोंका आलम्बनकर क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके तीन प्रकारकी श्रेणिके माथ्यमसे अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सूचित की गई है। आठ अनुयोगद्वारों में पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्वके साथ इसका पुनरुक्तपना हो जायगा ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँ पर सामान्यरूपसे कहे गये अल्पबहुत्वका तीन प्रकारकी श्रेणियोंको विशेषण