Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६३ ] पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
२३ * तेसिं चेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तेसिं चेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तेसिं चेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
४८. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * णिरयगदीए उक्कस्सिया कोधद्धा संखेजगुणा।
$ ४९. किं कारणं ? णेरइएसु सहावपडिबद्धमच्छरेसु कोहोवजोगकालस्स सुट्ट बहुत्तोवएसादो।
* देवगदीए उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया ।
$ ५०, विसेसपमाणमेत्थ सगमं, बहुसो परविदत्तादो । एवं चदुगदिसमासप्पाबहुअं समाणिय संपहि चोद्दस जीवसमासे अस्सियूण पयदप्पाबहुअगवेसणहमुवरिमं पबंधमाह
* तेसिं चेव उवदेसेण चोद्दस-जीवसमासेहिं दंडगो भणिहिदि।
$ ५१. तेसिं चेव भयवंताणमज्जमखु-णागहत्थीणं पवाइज्जतेणुवएसेण चोदसजीवसमासेसु जहण्णुकस्सपदविसेसिदो अप्पाबहुअदंडओ एत्तो भणिहिदि भणिष्यत इत्यर्थः ।
* उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हीं में मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । $ ४८. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे नरकगतिमें क्रोधका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है।
$ ४९, क्योंकि स्वभावसे मत्सरवृत्तिवाले नारकियोंमें क्रोधके उपयोग कालके अति बहुत होनेका उपदेश पाया जाता है।
* उससे देवगतिमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
६५०. यहाँ पर विशेषका प्रमाण सुगम है, क्योंकि अनेकबार उसका कथन कर आये हैं। इस प्रकार चारों गतियोंमें समासरूपसे अल्पबहुत्वके कथनको समाप्त करके चौदह जीवसमासोंका आश्रयकर प्रकृत अल्पबहुत्वका अनुसन्धान करनेके लिए आगेके प्रबन्धको
कहते हैं
___ * अब परम्परासे आये हुए उन्हीं आचार्योंके उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोंमें दण्डकका कथन करेंगे ।
___५१. उन्हीं भगवान् आर्यमंधु और नागहस्तिके प्रवाहक्रमसे आये हुए उपदेशके अनुसार चौदह जीवसमासोंमें आगे जघन्य और उत्कृष्टपदयुक्त अल्पबहुत्वदण्डकको कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।