Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६७]
गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा एगकालेणुवजुत्ता का च गदी होदि । तहा दोहि कालोवजोगवग्गणाहि तीहिं वा कालोवजोगवग्गणाहिं एवं गंतूण संखेज्जासंखेजकालोवजोगवग्गणाहि वा पव्वत्तकसायुदयट्ठाणपडिबद्धाहिं एकवारेणुवजुत्ता का च गदी होदि त्ति पुच्छा कदा होदि । तदो एवंविहाहिप्पायभेदपडिबद्धेसु दोसु अत्थेसु चउत्थी गाहा पडिबद्धा त्ति सिद्धं । संपहि पंचमीए गाहाए अवयारं कस्सामो । तं जहा(१४) केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु ।
केवडिया च कसाए के के च विसिस्सदे केण ॥६७॥
१३. एसा गाहा कसायोवजुत्ताणमट्ठ अणियोगद्दाराणि सूचेदि । तं कथं ? 'केवडिगा उवजुत्ता' त्ति एदेण पढमावयवेण कसायोवजुत्ताणं दव्वपमाणाणुगमो सूचिदो, कोहादिकसाएसु उवजुत्ता जीवा ओघादेसेहिं केत्तिया होंति त्ति सुत्तत्थावलंबणादो। एदेणेव संतपरूवणा वि सूचिदा त्ति घेत्तव्यं, संतपरूवणाए विणा दव्वपमाणाणुगमपवुत्तीए अणुववत्तीदो । खेत्त-पोसणाणं पि एत्थेव संगहो दट्ठव्वो, तेसिं पि दव्वपमाणपुरंगमाणं तप्परूवणाए चेव अंतब्भावाविरोहादो। एवमेदम्मि पढमे सुत्तावयवे चत्तारि अणियोगद्दाराणि णिलीणाणि होति । तहा 'सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु' त्ति एदम्मि विदियसुत्तावयवे कसायोवजुत्ताणं णाणेगजीवाणं कालाणुगमो सूचिदो, सरिसीसु उपयुक्त हुई कौन-सो गति होती है, उसी प्रकार पूर्वोक्त कषाय उदयस्थानोंसे प्रतिबद्ध दो कालोपयोगवर्गणाओं या तीन कालोपयोगवर्गणाओंसे लेकर संख्यात या असंख्यात कालोपयोगवर्गणाओंमें एक समयमें उपयुक्त हुई कौन-सी गति होती है ऐसी पृच्छा की गई है। इस प्रकार इस प्रकारके अभिप्रायभेदसे सम्बन्ध रखनेवाले दो अर्थों में यह चौथी गाथा प्रतिबद्ध है यह सिद्ध हुआ । अब पाँचवीं गाथाका अवतार करेंगे । यथा
* सदृश कषायोपयोगवर्गणाओंमें कितने जीव उपयुक्त होते हैं तथा चारों कषायोंमेंसे एक एक कषायमें कितने जीव उपयुक्त होते हैं और कषायोंमें उपयुक्त हुए कौन कौन जीव कषायोंमें उपयुक्त हुए अन्य किन जीवोंसे विशेषताको लिये हुए पाये जाते हैं ॥६७॥
$ १३. यह गाथा कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके आठ अनुयोगद्वारोंको सूचित करती है। वह कैसे ? 'केवडिया उवजुत्ता' गाथाके इस प्रथम अवयव द्वारा कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके द्रव्यप्रमाणानुगमका सूचन किया गया है, क्योंकि क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीव ओघ और आदेशकी अपेक्षा कितने हैं इस प्रकार यहाँ सूत्रार्थका अवलम्बन लिया गया है। तथा इसी वचन द्वारा सत्प्ररूपणा सूचित की गई है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सत्प्ररूपणाके विना द्रव्यप्रमाणानुगमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगमका यहीं पर संग्रह करना चाहिए, क्योंकि वे द्रव्यप्रमाणानुगमपूर्वक होते हैं, इसलिए उनका द्रव्यप्रमाणानुगममें अन्तर्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता । इस प्रकार सूत्रके इस प्रथम अवयवमें चार अनुयोगद्वार अन्तर्भूत हैं। तथा 'सरिसीसु च वग्गणाकसायेसु' इस प्रकार गाथासूत्रके इस दूसरे अवयवमें कषायोंमें उपयुक्त हुए नाना जीव और एक जीवविष