Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उपसंहार कषायप्राभृत और उसकी चूणि ये दोनों दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृतियाँ हैं इस विषयमें पूर्वमें हम सप्रमाण ऊहापोहपूर्वक संक्षेप जो कुछ भी लिख आये हैं उन सबका यह उपसंहार है
१. कषायप्राभूत और उसकी चणिके रचनाकालसे लेकर उनकी महती टीका जयधवलाके रचनाकाल तक और उसके बाद भी दिगम्बर परम्परामें उक्त ग्रन्थ-रत्नोंका बराबर पठन-पाठन होता आ रहा है । यह इसीसे स्पष्ट है कि उनपर दिगम्बर आचार्यों द्वारा अनेक उच्चारणाएँ और पद्धति प्रभृति टीकाएँ लिखी गई हैं। तथा उन्हींके आधारसे सबके अन्तमें जयधवला टीका भी लिखी गई है तथा वर्तमान समयमें उनका हिन्दीमें रूपान्तर भी हो रहा है।
२. जयधवलामें उल्लिखित अंग-पूर्वधारियोंकी परम्परासे ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परामें तीर्थकर भगवान् महावीरसे लेकर जो परम्परा पाई जाती है उसी परम्परामें किसी समय ये आचार्य हुए हैं । अपने श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिने भी इसे स्वीकार किया है।
३. इन ग्रन्थरत्नोंकी भाषा, रचनाशैली और शब्दविन्यास आदिका क्रम दिगम्बर परम्पराके एतद्विषयक अन्य साहित्यके ही अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके साहित्यके अनुरूप नहीं।
४. दि० आचार्योंकी मालिकामें गुणधर और यतिवृषभ दो आचार्य भी हुए हैं । तथा उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूणिकी रचना की थी, आनुपूर्वीसे इसकी अनुश्रुति दिगम्बर परम्परामें रही आई, श्वेताम्बर परम्परा इस विषयमें बिल्कुल अनभिज्ञ रही। यह निष्कारण नहीं होना चाहिए । स्पष्ट है, श्वेताम्बर परम्पराने इन दोनों अनुपम कृतियोंको श्वेताम्बर परम्पराके रूपमें कभी भी मान्यता नहीं दी।
५. शतक और शप्ततिका आदिमें २-४ उल्लेखों द्वारा जो कषायप्राभृत्तका नामनिर्देश पाया जाता है वह केवल विषयकी पुष्टि के प्रयोजनसे ही पाया जाता है । उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है ।
स्पष्ट है कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि दिगम्बर आचार्योकी अमर रचना है।