Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
जयवधलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४३. भागाभागाणु० दुविहो णि-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह. भुज० संखेजा भागा । अप्प० संखे०भागो। अवट्टि. असंखे०भागो। एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव अवर।इद त्ति । मणुसपज०मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धी० एवं चेव । णवरि अवद्विद० संखे भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । वाला एक जीव होता है १२ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १३ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १४ । कदाचित् अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है १५ । कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है १६। कदाचित् अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १७ । कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव
और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १८ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाला वाला एक जीव और अवस्थित वाला एक जीव होता है १९। कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २० । कदाचित् भुजगार वाला एक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २१ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २२ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २३। कदाचित भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाला एक जीव
और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २४ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २५ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २६ । इस प्रकार ६ भंग ऐक संयोगी, १२ भंग द्विसंयोगो और ८ भंग त्रिसंयोगी होते हैं। कुल मिलाकर २६ भंग होते हैं। सान्तर और निरन्तर मार्गणाओंकी अपेक्षा गतिमार्गणामें जो भंगोंकी प्रकिया बतलाई है आगेकी मार्गणाओंमें भी उसी प्रकार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये।
६४३. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं, अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ—भागाभागानुगमसे यह बतलाया गया है कि विवक्षित राशिमें अमुक अमुक विभक्तिवाले कितने भागप्रमाण हैं ? और परिमाणानुगमसे उनका परिमाण अर्थात् संख्या बतला दी गई है। जैसे ओघसे मोहनीयकी प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंमें संख्यात बहुभाग भुजगारविभक्तिवाले जीव होते हैं, संख्यातैक भागप्रमाण अल्पतर विभक्तिवाले जीव होते हैं और असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित विभक्तिवाले जीव होते हैं। फिर भी इन तीनों विभक्तिवालोंकी संख्या अनन्त है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, और सर्वार्थसिद्धिवालोंका प्रमाण चूंकि संख्यात है, अतः उनमें अवस्थित विभक्तिवाले भी संख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org