Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३३७ परिणदो त्ति भावत्यो। संपहि सव ददुचरिमावलियाए तदियसमयम्मि जहण्णजोगेण चउत्थसमयम्मि तप्पाओग्गअसंखेजगुणजोगेण सेससमएसु जहण्णजोगेणेव पुरिसवेदं बंधिय अवगदव दपढमसमए द्विदखबगदव्व पुबिल्लदव्वादो सादिरेयं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणमहियाणमुवलंभादो।
३७७. संपहि एगकालिखवगो हेवा ओदारदुं ण सक्किाइ, सव्वजहण्णजोगहाणे अवट्टिदत्तादो। दोफालिखवगो वि हेडा ओदारदुं ण सकिजइ, एगवारेण चरिम-दुचरिमफालीणं परिहाणिदंसणादो। तेणेत्थ अधापवत्तमेत्तदुचरिमाणं जदि एगं चरिम-दचरिमपमाणं लन्भदि तो चडिदद्धाणमतदचरिमाणं केत्तियं लभामो ति अधापवत्तेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्तमक्कम ण दोफालिखवगो ओदारेदव्यो। अधापवत्तेण चडिदद्धाणमोवट्टि अमाणं णिरग्गं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? आइरियभडारयाणमुवदेसादो। अणिरग्गे संते णोयरणं संभवइ, दोण्हं जोगट्ठाणाणं विचाले हाणंतरस्साभावादो। एवं पुव्वुप्पण्णट्ठाणेण सह एदं द्वाणं सरिसं होदि। संपहि एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमण घड्ढावेदव्यो जाव तेण पुव्वं चडिदद्धाणं चडिदो त्ति ।
३७८. संपहि सवे ददुचरिमावलियाए तदियसमयम्मि जहण्णजोगेण चउत्थ-पंचमसमएसुतप्पा ओग्गअसंखेजगुणजोगेसु सेससमएसु तप्पाओग्गजहण्णजोगेसु. अब सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें जघन्य योगसे, चतुर्थ समयमें तत्प्रायोग्य असंख्वातगुणे योगसे और शेष समयोंमें जघन्य योगसे ही पुरुषवेदका बन्ध करके अपगत वेदके प्रथम समयमें स्थित हुआ झपक द्रव्य पहलेके द्रव्यसे अधिक होता है, क्योंकि जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है।
६३७७. अब एक फालि क्षपकको नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि सबसे जघन्य योगस्थानमें अवस्थित है। दो फालि क्षपकको भी नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि एक बारमें चरम और द्विचरम फालियोंकी हानि देखी जाती है। इसलिए यहाँ पर अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरमोंका यदि एक चरम और द्विचरम प्रमाण प्राप्त होता है तो जितना शाध्वान आगे गये हैं उतने द्विचरमोंका कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार अधःप्रवृत्त से भाजित जितना अध्वान आगे गये हैं तत्प्रमाण दो फालि क्षपकको युगपत् उतारना चाहिए।
शंका-अधःप्रवृत्तसे जितना अध्वान आगे गये हैं उसका अपवर्तन करने पर वह अग्र रहित होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
' समाधान-आचार्य भट्टारकोंके उपदेशसे जाना जाता है। सान होने पर उतरना सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों योगस्थानोंके मध्यमें स्थानान्तरका अभाव है।
इस प्रकार उतारने पर पहले उत्पन्न हुए स्थानके साथ यह स्थान सदृश होता है। अब एक फालि क्षपकको वह जितना अध्वान चढ़ा है उतना स्थान चढ़ने तक एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाना चाहिए।
६३७८. अब सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें जघन्य योगसे, चौथे और पाँचवें समयमें तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगोंके होने पर तथा शेष समयोंमें तत्प्रायोग्य जघन्य
१. ताप्रती 'मोवडिमाणाणं शिरग्गं इति पाठः ।
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