Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं पत्ताओ त्ति । पुणो पयडिगोउच्छा वि परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्डावेदव्वा जावप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे अणंत हाणसहियमेगं फदयं जादं।
छ दुचरिमसमयसवेदस्स चरिमट्टिदिक्खंडगं चरिमसमय विणहूँ । ___६४२९. जो दुचरिमसमयसवेदो तत्थ पुरिसवेदस्स चरिमट्ठिदिक्खंडयं चरिमसमयविणहं होदि। द्विदिखंडयाणं सव्वेसि पि एकत्येव विणासो होदि त्ति द्विदिक्खंडयविणासो चरिमसद्दण ण विसेसियव्वो। सचमेदं जदि दव्वहियगओ अवलंबिओ होज, किंतु एदं णेगमणएण णिद्दिदं तेण चरिमट्ठिदिखंडयपढमफालियाए विणहाए ट्ठिदखंडयं पढमसमयविणहं । कधं फालियाए हिदखंडयववएसो ? ण, अंतोमुहुत्तमत्तफालियाहिंतो वदिरित्तहिदिखंडयाभावादो। तोक्खहि एकम्मि द्विदिखंडए बहुए [हि] द्विदक्खंडएहि होदव्वमिदि ण, द्विदिखंडयविहाणस्स दव्वहिदणयमवलंबिय अवद्विदत्तादो । दव्व-पज्जवहियणए अवलंबिय द्विदणेगमणयमस्सिदूण जेणेसा देसणा तेण द्विदिखंडयस चरिमसमयविणहत्तं ण विरुज्झदि त्ति भावत्थो । सवेददचरिमसमए
पनेको प्राप्त होने तक बढ़ानी चाहिये । पुनः प्रकृतिगोपुच्छाको भी परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा चार पुरुषोंका आश्रय लेकर अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर अनन्त स्थानोंसे युक्त एक स्पर्धक हो गया।
द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके चरम स्थितिकाण्डक चरम समयमें विनष्ट हो गया।
४२९. जो द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीव है उसके पुरुषवेदका चरम स्थितिकाण्डक चरम समयमें विनष्ट होता है।
शंका-सभी स्थितिकाण्डकों का एक स्थानमें ही विनाश होता है, इसलिये स्थितिकाण्डकविनाशको चरम शब्दसे विशेषित नहीं करना चाहिए ?
समाधान-यह सत्य है यदि द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन होवे किन्तु यह नैगमनयकी अपेक्षा निर्दिष्ट किया है, इसलिये चरमस्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विनिष्ट होने पर स्थितिकाण्डक प्रथम समयमें विनष्ट हुआ ऐसा कहा है।
शंका-फालिकी स्थितिकाण्डक संज्ञा कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण फालियोंको छोड़कर स्थितिकाण्डकका अभाव है।
शंका-तो एक स्थितिकाण्डकमें बहुत स्थितिकाण्डक होने चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डकविधान द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन लेकर अवस्थित है। द्रव्य-पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेकर स्थित हुए नैगमनयके आश्रयसे चूंकि यह देशना है, इसलिए स्थितिकाण्डकका चरम समयोंमें विनष्ट होना विरोधको प्राप्त नहीं होता यह उक्त कथनका भावार्थ है।
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