Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 398
________________ गा० २२ उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३८७ कस्स ? अण्णदरो जो खविदकम्मंसिओ तसेसु आगदो । संजमासंजमं संजमच बहुसो लद्धो । चत्तारिवारे कसाए उवसामेदण एईदिए गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असं०भागेण कालेण उवसामगसमयपबद्धे णिजरिदूण पुणो तसेसु आगंतूण बेच्छावडीओ सम्मत्तमणपालेदूण तदो दसणमोहणीयं खवेदि । अपच्छिमं द्विदिखंडयं अवणिजमाणमवणियं उदयावलियाए जं तं गलमाणं गलिदं । जाधे एकिस्से द्विदीए दुसमयकालहिदिग सेसं ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णय पदेससंतफम्मं । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमेसेव जीवो मिच्छत्तं गदो। दीहाए उव्वेल्लणद्धाए उव्वल्लिदण एया द्विदी दुसमयकालद्विदी जस्स सेसा तस्स जहणिया पदेसविहत्ती। अट्टण्हं कसायाणं जहणिया पदेसविहिती कस्स ? अण्णदर० अभवसिद्धियपाओग्ग जहण्णसंत काऊण तसेसु आगदो । संजमासंजमं संजमं च बहुमो लद्रूण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण एइंदियौं गदो। तत्थ पलि० असं०भागमच्छिदूण तसेसु आगदो। कसाए खवेदि । तस्स पच्छिमे हिदिखंडए अवगदे आवलियपविट्ठ गलमाणं गलिदं । एया द्विदी दुसमयकालट्ठिदी सेसं तस्स जहण्णय पदेससंतकम्मं । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णपरि चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण अणंताणु० विसंजोएदूग पुणो संजोएदो सव्वलहुं पुणो वि सम्मत्तं पडिवण्णो। बेच्छावहीओ सम्मत्तमणुपालेदूण अणंताणुबंधिविसंजोएंतस्स जस्स एया हिदी दुसमयकालहिदी सेसा तस्म जहण्णयं पदेससंतकम्मं । णवंस० जह० कौशिक जीव त्रसोंमें आया। वहाँ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त किया। चार बार कषायोंका उपशम कर एकेन्द्रियोंमें चला गया। वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमोण कालके द्वारा उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकी निर्जरा कर पुनः त्रसोंमें आकर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ अपनीयमान अन्तिम स्थितिकाण्डकका अपनयन कर उदयावलिमें जो गलमान है उसका गालन कर दिया। किन्तु जब एक स्थितिमें दो समय काल स्थितिवाला प्रदेशसत्कर्म शेष है तब मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर दीर्घ उद्वेलना कर जब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय कालवाली एक स्थिति शेष रहती है तब उसके उनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। आठ कषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो अन्यतर जीव अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसोंमें आया। वहां संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त कर और चार बार कषायोंको उपशमा कर एकेन्द्रियोंमें गया। वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर त्रसोंमें आया और कषायोंका क्षय किया। उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके चले जाने पर आवलिके भीतर प्रविष्ट हुआ द्रव्य गलता हुआ गला, जब दो समय कालप्रमाण स्थितिवाली एक स्थिति शेष रही तब उसके उक्त आठ कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। अनन्तानुबन्धोचतुष्कके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि चार बार कषायोंको उपशमा कर और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका बन्ध कर पुनः संयुक्त होकर अतिशीघ्र फिर भी सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जिसके दो समय कालवाली एक स्थिति शेष है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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