Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०२२]
उत्तरपयरिपठेसविसीय मामिन इत्थि-णउंसयवेदाणं जह० पदे० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ खइयसम्मादिट्ठी विवरीयं गंतूण तिपलिदोवमिएसु तिरिक्खेसु उववजिदूण चरिमसमए णिप्पिदमाणो तस्स जहण्णयं संतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज०-पंचि०तिरिक्खजोणिणीणं । णवरि जोणिणीसु इंत्थि-णउंसयवेदाणं मिच्छत्तभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज० मिच्छत्त-सोलसकसायभय-दुगुच्छाणं जह० पदे०वि० कस्स ? अण्ण० जो खविदकम्मंसिओ विवरीय गंतूण पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स जहण्णय पदेससंतकम्म। सत्तणोकसायाणमेवं येव । णवरि अंतोमुहु त्तवण्णल्लयस्स सगसगपडिवक्खबंधगद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो।
६४५०. मणुसाणमोघं । एवं चेव मणुसपजत्ताणं । णवरि इत्थिवे० चरिमहिदिखंडयचरिमसमयसंकामगस्स । मणुसिणीसु मणुसोपं । णवरि णउंसयवेदस्स चरिमहिदिखंडए चरिमसमयवट्टमाणस्स । पुरिसवेदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स । मणुसअपज्जत्ताणं. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तमंगो।
६४५१. देवगदीए देवेसु मिच्छ० जह० पदेस० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ चउवीससंतकम्मिओ दीहाउटिदिएसु देवेसु उववजिदूण तत्थ भवहिदिमणुपालेदण चरिमसमयणिप्पिदमाणयस्स जहण्णयं संतकम्मं । सम्मत-सम्मामिच्छत्त-बारसक०किसके होता है ? जो क्षपितकर्मा शिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव विपरीत जाकर तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर निकलनेके अन्तिम समयमें स्थित है उसके उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योनिनी जीवोंमें सोवेद और नपुसकवेदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त कोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उक्त कर्मोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सात नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद अपनी अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धककालके अन्तिम समयमें होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
६ ४५०. मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कमका स्वामित्व अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण होनेके अन्तिम समयमें होता है। मनुष्यिनियोंमें सामान्य मनुष्योंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें विद्यमान मनुष्यिनीके होता है। तथा पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान मनु यिनीके होता है। मनुष्य अपर्याप्त कोंमें पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
४५१. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो क्षपितकर्माशिक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव दीर्घ आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर तथा वहां भवस्थितिका पालनकर वहांसे निकलता है तब निकलनेके अन्तिम समयमें उसके मिथ्यात्वका
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