Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 403
________________ ३९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्तो५ णवणोकसायाणं तिरिक्खोघं । अणंताणु० चउक्क० जह० पदे०वि० कस्स । जो खविदकम्मंसिओ वेदयसम्मादिही अट्ठावीससंतकम्मिओ दीहाउहिदिएसु देवेसु उववजिदूण तत्थ भवहिदिमणुपालेदूण त्थोवाबसेसे जीविदव्वए ति अणंताणुबंधि० विसंजोइदुमाढत्तो। तत्थ अपच्छिमे द्विदिखंडए अवगदे जस्स आवलियपविहं एवं विदिदुसमयकालट्ठिदियं सेसं तस्स जहण्णं संतकम्मं । भवण०-वाण-जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव णवगेवजा ति देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वह तिमिच्छससम्मत्त सम्मामि० ज० पदे० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ चदुवीससंतकम्मिओ दीहाउहिदिए सु उववजिदूण तत्थ य दोहं भवहिदिमणुपालेदृण चरिमसमयणिप्पिदमाणयस्स जहण्णयं संतकम्म । अणंताणु०चउ०-इत्थि-णउंसयवेदाणं देवोघं । बारसक०-पुरिसवेदभय-दुगुच्छाणं ज० पदेसवि० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ खइयसम्मादिट्ठी विवरीयं गंतूण अप्पप्पणो देवेसुववण्णो तस्स पढमसमयदेवस्स जहण्णयं संतकम्म। हस्स-रदिअरदि-सोगाणमेवं चेव । णवरि अंतोमुहुत्तववण्णल्लयस्स । एवं णेदव्वं जाव अणाहार ति। एवं सामित्तं समत्तं । जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग सामान्य तियनोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कको जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो क्षपितकर्माशिक अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्कर्मवाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दीर्घ आयुस्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां भवस्थितिका पालन कर स्तोक जीवितव्यके शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेके लिए उद्यत हुआ । वहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डकके अपगत होने पर जिसका आवलि प्रविष्ट कम दो समय स्थितिवाला एक स्थितिमात्र शेष रहा उसके अतन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथ्वीके समान भङ्ग है। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला क्षपितकाशिक जीव दीर्घ आयु स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां पर दीर्घ भवस्थितिका पालन कर वहां से निकलनेवाला है उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उस देवके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें उक्त कोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। हास्य, रति, अरति, और शोकके जघन्य प्रदेशसत्कर्म का स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त होने पर इनके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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