Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 368
________________ उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३५७ गा० २२ ] दचरिमफालिहाणं पि, दोदुचरिमफालीओ बोलेदृण तदियदु चरिमफालीए हेडिमअंतरे समुप्पण्णत्तादो । तम्हा एदं द्वाणमपुणरुत्तं चेवे त्ति दव्वं । संपहि हममेत्थेव विय एगफालिक्लवगे पक्खे उत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तं द्वाणं होदि, उवरिमचरिमफालिट्ठाणं बोलेण विदिय-तदियदुचरिमफालिडाणाणमंतरे समुप्पण्णत्तादो । एवं एगफा लिक्खवगो चैव पक्खेवुत्तरादिकमेण वढावेदव्वं जाय तप्पा ओग्गमसंखेखगुणं जोग' पत्तोति । $ ४०२. संपहि तिष्णिफालिक्खवगमणंतरहे डिमजोग' दूण चरिमफालिहाणेण समाणं करिय पुणो एत्थुववजंतं किरियाकप्पं वत्तइस्साम । तं जहा - अ - अण्णेगो तिचरिम- चरिमसमएस जहण्णजोगेण दुचरिमसमए तप्पा ओग्गअसंखेजगुणजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदो । एदस्स द्वाणं पुव्विल्ल हाणादो विसेसाहियं, चडिदद्वाणमेतदुचरिमफालीण महिय तुवलंभादो । पुणो अधापवत्त भागहारेणोत्रविदचडिदद्धाणमेतं दोफालिक्खवगमोदारिय तिण्णिफा लिक्खवगे पक्खेवु तरजोग णीदे पुणरुतं तिचरिमफालिविसेसद्वाणं होदि । संपहि इममत्थेव इविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमण वढावेदव्वो जात्र तप्पा ओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तोति । ९४०३. संपहि इममत्थेव दविय तिण्णिफालिक्खवगं जहण्णजोगं दूण चरिमफालिडाणेण समाणं करिय पुणो एत्थुववजंतं किरियाकप्पं वत्तइस्लामो | तं जहा - सवेदतिचरिमसमए घोलमाणजहण्ण जोगेण चरम दुरिमसमएस यह द्विचरम फालिस्थान भी नहीं है, क्योंकि दो द्विचरम फालियोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरमफालिके अधःस्तन अन्तरालमें उसन्न हुआ है, इसलिए यह स्थान अपुनरुक्त ही है ऐसा जानना चाहिए । अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योग तक ले जाने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि उपरिम चरम फालिस्थानको उल्लंघनकर दूसरे और तीसरे द्विरम फालिस्थानोंके अन्तराल में उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार एक फालिक्षपकको ही तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । ९४०२. अब तीन फालिक्षपकको अनन्तर अधस्तन योगको ले जाकर चरम फालिस्थानके समान करके पुनः यहाँ पर उत्पन्न होनेवाले क्रियाकलापको बतलाते हैं । यथा - अन्य एक जीव त्रिचरम और चरम समयोंमें जघन्य योगसे तथा द्विचरम समय में तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग बन्ध कर अधिकृत चरम समय में अवस्थित है । इसका स्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है । पुनः अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्षपकको उतार कर तीन फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्त त्रिचरम फालिविशेषरूप स्थान होता है । अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक के क्रमसे बढ़ाना चाहिए । ९४०३. अब इसे यहीं पर स्थापित कर तीन फालिक्षपकको जघन्य योगको प्राप्त कराकर चरम फालिस्थानके समान कर पुनः यहाँ पर उत्पन्न हुए क्रियाकलापको बतलाते हैं । यथा - सवेद भाग के त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे तथा चरम और द्विचरम समयों में तत्प्रायोग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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