Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 378
________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त तिण्णिफालिक्खवगं च परिवाडीए जहण्णजोगपक्खेवउत्तरजहण्णजोगेसु हविय पुणो दोफालिक्खवग एगेगपरिवाडि पडि चदपक्खेउत्तरादिजोगणेदूण पंचमादिपरिवाडीओ उप्पादेदव्वाओ जाव दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तपरिवाडीओ समत्ताओ त्ति । ____४१७. संपहि सव्वपच्छिमपरिवाडी उच्चदे। तं जहा—सवेदचरिम दुचरिमतिचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धछप्फालीओ सादिरेयतिगुणमेत्तजोगट्ठाणेण बद्धएगफालिक्खवगट्ठाणेण समाणाओ त्ति पुणरुत्ताओ। पुणो तिण्णिफालिक्खवगं पक्खेउत्तरजोग णेदूण दोफालिक्खवगमेगवारेण दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणं णीदे अपुणरुत्तहाणं होदि, अधापवत्तभागहारमत्तचरिमफालीहि एगतिचरिमफालीए च अहियत्तुवलंभादो । संपहि इमे एत्थेव दृविय एगफालिक्खवगो चेव पक्खेउत्तरादिकमेण वड्डाविय णेदव्वो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिदण णेदव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणं उक्कस्सगंथहाणादो हेट्ठा रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणाणमंतराणि मोत्तूण पुणो हेडिमासेसहाणंतरेसु तिचरिमफालिविसेसटाणाणि समुप्पण्णाणि । एवमेसा पढमपरूवणा समत्ता।। ६४१८. संपहि दोणितिचरिमविसेसे अस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सम्मो । तं जहा-छप्फालिक्खवगट्टाणमेगफालिक्खवगट्ठाणेण सरिसं काऊण पुणोतिण्णिफालिक्खवगे फालिक्षपकको और तीन फालिक्षपकको परिपाटीक्रमसे जघन्य योग प्रक्षेप अधिक जघन्य योगोंके ऊपर स्थापित कर पुनः दो फालिक्षपकको एक एक परिपाटीके प्रति चार प्रक्षेप अधिक आदि योगको ले जाकर पञ्चम आदि परिपाटियोंको दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र परिपाटियोंके समाप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिए। ६४१७. अब सबसे अन्तिम परिपाटी का कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बद्ध छह फालियाँ साधिक तिगुणेमात्र योगस्थानसे बद्ध एक फालिक्षपकस्थानके समान हैं, इसलिए पुनरुक्त हैं। पुनः तीन फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करा कर दो फालिक्षपकको एक बारमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानको प्राप्त कराने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालियाँ और एक त्रिचरम फालि अधिक पाई जाती हैं। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको ही एक एक प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ा कर ले जाना चाहिए । इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर पुनः नीचेके अशेष स्थानोंके अन्तरालोंमें त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह प्रथम प्ररूपणा समाप्त हुई। ६४१८. अब दो त्रिचरम विशेषोंका आश्रय कर स्थानोंका कथन करते हैं। यथा-छह फालिक्षपकस्थानको एक फालिक्षपकस्थानके साथ समान करके पुनः तीन फालिक्षपकके अक्रमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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