Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 381
________________ ३७० जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अधियारतिचरिमहिदक्खवगहाणं पुव्विल्लट्ठाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणमहियत्तवलंभादो। पुणो अधापवत्तभागहारेणोपट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं दोफालिक्खवगे ओदारिदे गंथट्ठाणसमाणं होदि । एवं सरिसं कादूण तिण्णिफालिक्खवगे दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगणीदे पुव्वं णियत्ताविदहाणमुप्पादि।। __ ४२२. संपहि एदमेत्थेव दुविय पुणो एगफालिक्खवगो चेव जाणिदण वड्ढावेदव्वो जावुक्कस्सजोगट्ठाणादो हेडिमतिभागजोग पत्तो त्ति । एवं वड्डाविजमाणे एग-दो-तिण्णिफालिक्खवगेसु कम्हि कम्हि जोगहाणे अवद्विदेसु एगफालिसामिणो उकस्सहाणादो हेडिमसव्वअंतरेसु अपयदअत्यहाणाणि उप्पअंति तिचे तिण्णिफालिक्खवमे तिभागजोगट्ठाणादो उवरि दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगहाणे एगफालिक्खवगे रूऊणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदतिभागजोगपक्खेवभागहारं तिगुणं सादिरेयं। पुणो अधापवत्तभागहारमेत्तं च हेढा ओदरिय द्विदजोगट्ठाणे दोफालिक्खवगे तिभागजोगम्मि वट्टमाणे एगफालिसामिणो उक्कस्सगंथट्ठाणादो हेट्ठिमसव्वट्ठाणंतरेसु पच्छिमतिचरिमफालिविसेसट्ठाणाणि उप्पजंति । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिय सरिसं करिय णेदव्वं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथट्ठाणादो हेडिमरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तगंथट्ठाणविच्चालाणि मोत्तूण सेसासेसविच्चालेसु पयदअत्थट्ठाणाणि घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कराकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे : अध्वानमात्र दो फालिक्षपकके उतारने पर ग्रन्थस्थानके समान होता है। इस प्रकार सदृश करके तीन फालिक्षपकके दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र योगको प्राप्त कराने पर पहले निवृत्त कराया गया स्थान उत्पन्न होता है। ६ ४२२. अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको ही जानकर उत्कृष्ट योगस्थानसे अधस्तन त्रिभाग योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर एक, दो और तीन फालिक्षपकोंके किस किस योगस्थानमें अवस्थित होने पर एक फालिस्वामीके उत्कृष्ट स्थानसे अधस्तन सब अन्तरालोंमें अप्रकृत अर्थस्थान उत्पन्न होते हैं, इसलिए तीन फालिक्षपकके त्रिभाग योगस्थानसे ऊपर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगस्थानरूप एक फालिक्षपकके रहते हुए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित त्रिभाग योग प्रक्षेपभागहार साधिक तिगुणा होता है। पुनः अधःप्रवृत्तभागहारमात्र नीचे उतरकर स्थित हुए योगस्थानमें दो फालिक्षपकके त्रिभाग योगमें वर्तमान रहते हुए एक फालिस्वामीके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे अधस्तन सर्व स्थानोंके अन्तरालमें अन्तिम त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर और सदृश करके दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे अधस्तन एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404