Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 360
________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारादो सादिरेयमेत्तद्धाणमुवरि चडिय ह्रिदजोगेण बद्धगफालिक्खवगट्ठाणेण समाणत्तादो । एदेण कारणेण सवेददुचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण चरिमसमए दुपक्खेउत्तरजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए द्विदस्स पदेससंतकम्ममपुणरुत्तं पुव्विल्लसरिसीभदसंतकम्मट्ठाणादो दोहि चरिम-दुचरिमफालियाहि अहियत्तुवलंभादो। दुचरिमफालिमस्सिऊण समुप्पण्णत्तादो पुघिल्लदचरिमफालिट्ठाणाणं अंतो णिवददि ति णासंकणिज्जं, चरिमफालिहाणादो एगदचरिमफालीए अहियसंतकम्मट्ठाणेण दोहि दुचरिमफालियाहि अहियसंतकम्मट्ठाणस्स समाणत्तविरोहादो। ___६ ३९३. संपहि एदं दोफालिक्खवगमेत्येव छविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्यो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । संपहि दचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगण चरिमसमए तप्पाओग्गअसंखेजगुणजोगण बंधिय अधियारदचरिमसमए द्विदस्स चडिद्धाणमेत्ताओ दचरिमफालीओ अधिया होंति, पुबिल्लहाणस्स चरिमकालिट्ठाणपमाणेण कदत्तादो । संपहि अधापवत्तभागहारेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं दोफालिक्खवगमोदारिय पुणो दपक्खेउत्तरजोग णीदे पुणरुत्तट्ठाणं होदि, पुव्वं णियत्ताविदट्ठाणेण समाणत्तादो। संपहि इममेत्थेव दृविय एगफालिक्ख वगो पक्खेउत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्यो जाव असंखेजगुणजोग पावेदूण पुणो फालिस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहार से साधिक अध्वान ऊपर चढ़कर स्थित हुए योगसे बन्धको प्राप्त हुए एक फालि क्षपकस्थानके समान है। इस कारणसे सवेद भागके द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे चरम समयमें दो प्रक्षेप अधिक योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समयमें जो स्थित है उसका प्रदेशसत्कर्म अपुनरुक्त है, क्योंकि पहलेके समान हुए सत्कर्मस्थानसे दो चरम और द्विचरम फालियोंकी अपेक्षा अधिकता पाई जाती है। द्विचरम फालिका आश्रय कर उत्पन्न हुई है, इसलिए पहलेकी द्विचरम फालिस्थानोंके भीतर पतित होती है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चरम फालिस्थानसे एक द्विचरम फालिकी अपेक्षा अधिक सत्कर्मस्थ नसे दो द्विचरम फालियोंकी अपेक्षा अधिक सत्कर्मस्थानके समान होने में विरोध आता है। ६३९३. अब इस दो फालि क्षपकको यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालि क्षपकको तस्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । अब द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगद्वारा और चरम समयमें तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगद्वारा बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए जीवके आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियाँ अधिक होती हैं, क्योंकि पहलेके स्थानको चरम फालिस्थानके प्रमाणरूपसे किया है। अब अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्ष पकको उतार कर पुनः दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्तस्थान होता है, क्योंकि पहले निवृत्त कराये गये स्थानके समान है। अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको, असंख्यातगुणे योगको प्राप्त कर पनः दो फालिक्षपकके योगसे असंख्यातगुणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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