Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 354
________________ ३४३ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसषिहत्तीए सामितं जादं ति दोफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरजोगं णेदव्वो । एवं णीदे पुविन दुचरिमफालिट्ठाणेणेदं द्वाणं समाणं होदि, पुव्वं पन्चट्टाविदचरिम-दुचरिमफालोणमक्कमेण पविद्वत्तादो । तेणेदं द्वाणं पुणरुत्तं । ___३८४. संपहि दोफालिक्खवगमेत्येव जोगट्ठाणे ठविय एगफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरकमेण वड्डमाणे दुचरिमफालिट्ठाणाणि थैव उप्पअंति त्ति एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव दुचरिमफालिक्खवगद्विदजोगादो असंखेजगुणं जोगं पत्तो ति। एवं संखेजपरियणवारे गंतूण एगफालिक्खवगो अद्धजोगं पत्तो । दोफालिखवगो वि अद्धजोगादो हेट्ठा असंखेजगुणहोणं जोगं पत्तो। अण्णेगेण सवेददुचरिमसमए दोफालिखवगो जोगादो अणंतरहेहिमजोगेण तस्सेव चरिमसमए अद्धजोगेण बद्धे एदस्स पदेससंतकम्मट्ठाणं पुव्विल्लपदेससंतकम्मट्ठाणादो चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालियाहि अहियं होदि, पुग्विल्लहाणम्मि चरिम-दुचरिमफालीणमभावादो। ६ ३८५. संपहि एदाओ दुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदचडिदद्धाणमेत्ताओ होति त्ति एगफालिक्खवगो पुणरवि हेट्ठा एत्तियमेत्तमद्धाणमोसारेदव्यो । एवमोसारिय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरमद्धजोगं णीदे पुणरुत्तं दुचरिमफालिहाणमुप्पजदि । पुणो एवं दोफालिक्खवगमेत्येव अधिकरूप योगस्थानको प्राप्त कराना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त कराने पर यह स्थान पहलेके द्विचरम फालिस्थानके समान होता है, क्योंकि पहले पलटा कर चरम और द्विचरम फालियोंका अक्रमसे प्रवेश हुआ है, इसलिए यह स्थान पुनरुक्त है। ६३८४. अब दो फालिक्षपकको यहीं ही योगस्थानमें स्थापित कर एक फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ने पर द्विचरम फालिस्थान ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको द्विचरम फालि क्षपकके स्थित योगसे असंख्यातगणे योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढाना चाहिए । इस प्रकार संख्यात परिवर्तन बार जाकर एक फालि क्षपक अर्ध योगको प्राप्त हुआ। दो फालि क्षपक भी अर्धयोगसे नीचे असंख्यातगुणे हीन योगको प्राप्त हुआ। अन्य एकके द्वारा सवेद भागके द्विचरम समयमें दो फालिक्षपक योगसे अनन्तर अधस्तन योगसे उसीके चरम समयमें अर्धयोगसे बन्ध करने पर इसका प्रदेशसत्कर्मस्थान पहलेके प्रदेशसत्कर्मस्थानसे आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है, क्योंकि पहलेके स्थानमें चरम और द्विचरम फालियोंका अभाव है। ६३८५. अब इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित होकर वे आगे गये हुए अध्वानमात्र होती हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको फिर भी नीचे इतनामात्र अध्वान अपसारित करना चाहिए। इस प्रकार अपसारित करके दो फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक अर्धयोगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्त द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है। पुनः इस दो फालि क्षपकको यहीं पर स्थापित कर एक फालि क्षपकको १. ता०प्रतौ 'खवगमेत्ते (त्थे )व' मा प्रतौ 'वखवगमेत्तेव' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'

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