Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 349
________________ ३३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुरिसवदं बंधिय अवगदवेदपढमसमयद्विददव्य पुस्विरलदव्वादो सादिरेयं, चडिदद्धाणमत्तदुचरिम-तिचरिमफालियाहि अहियत्तुवलंभादो। संपहि एदासिं दुचरिम-तिचरिमफालीणं दव्व चरिम-दचरिमफालिपमाणेण कीरमाणे चडिदद्धाणं दगुणं सादिरेयमधापवत्तभागहारेण खंडिदं होदि त्ति एत्तियम तमद्धाणं दोफालिखवगो पुणरवि हेडा ओदारदव्यो। एवमोदारिदे पुबिल्लदव्वण सरिसं होदि, अहियदव्वस्स कयहाणित्तादो । एवं चत्तारि-पंच-छप्पहुडि जाव दुसमयण'दोआवलियमेत्तसमयपबद्धा तप्पाओग्गमसंखे०गुणं पत्ता त्ति ताव वड्ढावेदव्व। णवरि एगफालिखवगो पोलमाणजहण्णजोगट्ठाणे चेव हिदो त्ति दहव्यो । संपहि एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकम ण ताव वड्डाव दव्वो जाव सव्वफालीणं चडिदखाणं वोलेदण तप्पाओग्गं तत्तो असंखेजगुणं जोगं पत्तो त्ति । संपहि एगफालिक्खवगजोगेण दोफालिक्खवगेण एगफालिक्खवगेण वि दोफालिखवगजोगेण पुरिसवेदे बद्धे पुविल्लपदेससंतकम्मट्टाणादो एदं पदेससंतकम्महाणं चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालियाहि अहियं होदि, सेससमयक्खवगाणं जोगेण मेदाभावादो। एदं चडिदद्धाणं रूवूणअधापवत्तेण खंडिय तत्थ एयखंडमेत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदव्वो, अण्णहा अहियदव्वस्स परिहाणीए विणा पुविल्लदव्वेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्वो जाव दोफालिक्खवगजोगहाणं पत्तो ति । योगके रहते हुए पुरुषवेदका बन्ध कर अपगतवेदके प्रथम समयमें स्थित हुआ द्रव्य पहलेके द्रव्यसे साधिक है, क्योंकि जितना अध्वान आगे गये हैं तत्प्रमाण द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके साथ अधिकता पाई जाती है। अब इन द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके द्रव्यको चरम और द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करने पर जितना अध्वान आगे गये हैं वह साधिक दूना अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजितमात्र होता है, इसलिए दो फालि क्षपकको इतना मात्र अध्वान फिर भी नीचे उतारना चाहिए । इसप्रकार उतारने पर पहलेके द्रव्यके समान होता है, क्योंकि अधिक द्रव्यकी हानि की गई है। इसप्रकार चार, पाँच और छहसे लेकर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एक फालि क्षपक घोलमान जघन्य योगस्थानमें ही स्थित है ऐसा जानना चाहिए । अब एक फालि क्षपकको सब फालियोंका जितना अध्वान आगे गये हैं उसे बितोकर तत्प्रायोग्य उससे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब एक फालि क्षपक योगरूप दो फालि क्षपकके द्वारा तथा एक फालि क्षपकरूप भी दो फालि क्षपक योगके द्वारा पुरुषवेदका बन्ध होने पर पहले के प्रदेशसत्कर्मस्थानसे यह प्रदेशसत्कर्मस्थान जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है, क्योंकि शेष समयवर्ती क्षपकोंका योगसे भेद नहीं है। इस आगे गये हए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजितकर वहां एक फालि क्षपकको फिर भी एक खण्डमात्र नीचे उतारना चाहिए, अन्यथा अधिक द्रव्यकी हानि हुए बिना पहलेके द्रव्यके साथ समानता नहीं बन सकती है। पुनः एक फालि क्षपकको एक-एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे दो फालि क्षपक योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। १. ता० प्रती 'जाव समयूण-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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