Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 351
________________ ३४० ___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ संभवो तत्तियमेत्तसमएसु सांतरं णिरंतरं वा तेण परिणमिय अवसेससमएसु आदेसुक्कस्सजोगहाणेसु परिणमिय बंधदि ति भणिदं होदि । एवं वडाविदे दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सा जादा) संपहि सयलजोगहाणद्धाणस्स पुव्वं व दुसमयणदोआवलियगुणगारो एत्थ साहेयवों । जोगस्स द्वाणाणि जोगहाणाणि त्ति अभिण्णछट्टिमवलंबिय भणंताणमाइरियाणमहिप्पायपणासणहमेसा परूवणा कदा । ६३८०(संपहि एदस्स जइवसहाइरियमुहविणिग्गयस्स सुत्तस्स देसामासियभावेण पयासिदसगासेसहस्स जहत्थपरूवणं कस्सामो) तं जहा–चरिमफालिमस्सिद्ग पुवुप्पाइदा सेसटाणाणि पुव्वं व उप्पाइय संपहि तदंतरेसु पदेससंतकम्महाणाणं परूवणाए कीरमाणाए सवेदस्स चरिम-दुचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए हिदतिण्णिफालिक्खवगो ताव अवलंबेयव्यो । एदं तिण्णिफालिपदेससंतकम्मट्ठाणं पुणरत्तं, घोलमाणजहण्णजोगादो सादिरेयदुगुणजोगट्ठाण बद्धपुरिसवेदचरिमसमयसव दस्स एगफालिपदेससंतकम्महाणेण समाणत्तादो। संपहि एगफालिक्खवग जहण्णजोगेण बंधाविय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरकमेण बंधाविदे अण्णमपुणरुत्तपदेससंतकम्मट्ठाणं होदि, अक्कमेण धरिम-दुचरिमफालीणं पवे सुवलंभादो। वहिदचरिम-दुचरिमफालीसु तत्थ एगचरिमफालिं घेत्तूण पुचिल्लसरिसीकदहाणम्मि परिणमाना सम्भव है उतने ही समयोंमें सान्तर अथवा निरन्तर क्रमसे इस रूपसे परिणमाकर अवशेष समयोंमें आदेश उत्कृष्ट योगस्थानों में परिणमाकर बन्ध करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध उत्कृष्ट हो जाते हैं । अव सकल योगस्थान अध्वानका पहलेके समान दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकार यहां पर साध लेना चाहिये । योगके स्थान योगस्थान इसप्रकार अभेदरूप षष्ठी विभक्तिका अवलम्बन करके कथन करनेवाले आचार्यों के अभिप्रायका प्रकाशन करनेके लिए यह प्ररूपणा की है। ६३८०. अब यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए तथा देशामर्षकभावसे अपने समस्त अर्थका प्रकाशन करनेवाले इस सूत्रका यथा स्थित कथन करते हैं । यथा-चरम फालिका आश्रय करके पहले उत्पन्न किये गये समस्त स्थानोंको पहलेके समान उत्पन्न करके अब उनके अन्तरालोंमें प्रदेशसत्कर्मस्थानोंको प्ररूपणा करने पर सवेद भागके घरम और द्विचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए तीन फालि क्षपकका तब तक अवलम्बन करना चाहिए । यह तीन फालि प्रदेशसरकर्मस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगसे साधिक दुगुणे योगस्थानके द्वारा बाँधे गये पुरुषवेदके चरम समयवर्ती सवेदी जीवके एक फालि प्रदेशसत्कर्मस्थानके साथ समानता है। अब एक फालि क्षपकको जघन्य योगसे बन्ध कराकर दो फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिक योगके द्वारा बन्ध कराने पर अन्य अपुनरुक्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, क्योंकि अक्रमसे चरम और द्विचरम फालियोंका प्रवेश उपलब्ध होता है। बढ़ी हुई चरम और द्विचरम फालियोंमेंसे वहां पर एक चरम फालिको ग्रहणकर पहलेके समान किये गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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