Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] • उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१२९ खवगे य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेजा ।
तव्विवरीदो कालो . संखेजगुणाए सेढीए ।। ३ ॥ ६ १३२. एदेण पयारेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु गुणसेढिं करिय पुणो दसवासनियमसे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है किन्तु काल उससे विपरीत है। अर्थात् जिनसे लगाकर सम्यक्त्वकी उत्पत्तितक उत्तरोत्तर संख्यांतगुणा संख्यातगुणा है ।। २-३ ।।
विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कारण तीन करणोंके अन्तिम समयमें स्थित मिध्यादृष्टि जीवके कर्मो की जो गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य है उससे देशसंयतके गुणश्रोणि निर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। उससे सकलसंयमीके गुणश्रणिनिर्जराका द्रब्य असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार उससे अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेवालेके, उससे दर्शनमोहका क्षय करनेवालेके, उससे कषायका उपशम करनेवाले आठवें, नौवं और दसवें गुण स्थानवर्तीके, उससे उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तीके, उससे क्षपकरणिके आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानवर्तीके, उससे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्तीके और उससे स्वस्थान केवली जिन और समुद्भातकेवली जिनके गुणश्रेणिनिर्जराका जो द्रव्य है वह असंख्योतगुणा असंख्यातगुणा है। गुणश्रेणिनिर्जराका कथन पहले कर आये हैं । अर्थात् डेढ़ गुणहानि प्रमाण संचित द्रव्यमें अपकर्षण भागहारसे भाग देकर लव्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभाग ऊपरको स्थितिमें दो । बाकी बचे एक भागमें असंख्यात लोकका भाग देकर बहुभागको गुणश्रेणि आयाममें दो और अवशेष एक भागको उदयावली में दो। जो द्रव्य उदयावलिमें दिया गया वह वर्तमान समयसे लगाकर एक आवली कालमें जो उदयावलीके निषेक थे उनके साथ खिर जाता है। उदयावलीके ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि होती है। उसमें दिया हुआ द्रव्य अन्तर्मुहूर्त कालके प्रथमादि समयमें जो निषेक पहलेसे मौजूद थे उनके साथ क्रमसे असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होता हुआ खिरता है। अर्थात् ऊपर गुणश्रोणि निर्जराका द्रव्य असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो बहुभाग आया तत्प्रमाण कहा है। सो पूर्वमें कहे हुये ग्यारह स्थानोंमें गुणश्रेणिका जो अन्तमुहूर्तप्रमाण काल है उसके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त उस द्रव्यकी प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निषेकरचना की जाती है। इस प्रकार जिस जिस समयमें जितना जितना द्रव्य स्थापित किया जाता है उतना उतना द्रव्य उस उस समयमें निर्जराको प्राप्त होता है। इस तरह गुणश्रेणिके कालमें दिया हुआ द्रव्य प्रति समय असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होकर . निर्जीर्ण होता है। यह गुणणि निर्जराका द्रव्य पूर्वमें कहे गये ग्यारह स्थानोंमें असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा है। इसका कारण यह है कि इन स्थानोंमें विशुद्धता अधिक अधिक है। अतः पूर्वस्थानमें जो अपकर्षण भागहारका प्रमाण होता है उससे आगेके स्थानमें अपकर्षण भागहार असंख्यातवें भाग असंख्यातवें भाग होता जाता है। सो जितना भागहार घटता है उतना ही लब्ध राशिका प्रमाण अधिक अधिक होता जाता है। उसके अधिक होनेसे गुणश्रोणिका द्रव्य भी क्रमसे असंख्यातगुणा होता जाता है । किन्तु उत्तरोत्तर गुणश्रणिका काल विपरीत है। अथात् समुद्भातगत जिनके गुणश्रेणिके कालसे स्वस्थान जिनकी गुणश्रेणिका काल संख्यातगुणा है । उससे क्षीणमोहका संख्यातगुणा है। इसी प्रकार क्रमसे पीछेकी ओर संख्यातगुणा संख्यातगुणा जानना। किन्तु सामान्यसे सबकी गुणश्रेणिका काल अन्तर्मुहूर्त ही है।
६ १३२. इस प्रकारसे तिर्यश्च और मनुष्यों में गुणश्रेणीको करके फिर दस हजार वर्षकी
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