Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामिन्तं
३१७ खंडिय तत्थ एयखंडम्मि तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणपक्खेवभागहारेण अब्भहियम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तचरिमफालीहि अंतरिदूण एदमपुणरुत्तहाणमुप्पजदि । संपहि तप्पाओग्गजहण्णजोगेण बंधिदणागददचरिमसमयसवेदो पक्खेवत्तरकमेण वडावेदव्वो जाव उकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं वड्डाविदे तिण्णि वि फालीओ उक्कस्साओ जादाओ। तेण एत्थ जोगहाणमेत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि लभंति त्ति जं भणिदं तं सुट्ट समंजसं । तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणादो उवरिमअद्धाणमेत्ताणि चेव जेणेत्थ पदेससंतकम्मट्ठाणाणि उप्पण्णाणि तेण जोगहाणमेत्ताणि संतकम्मट्टाणाणि एत्थ लब्भंति त्ति णेदं घडदे ? ण एस दोसो, हेडिमजोगहाणद्धाणस्स सव्वजोगहाणद्धाणादो असंखे०भागत्तेण पाधणियाभावादो।
* चरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगो दुचरिमसमयसवेदो उकस्सजोगो तिचरिमसमयसवेदो अण्णदरजोगहाणे त्ति एत्थ पुण जोगट्टाणमेत्ताणि पदेससंतकम्माणाणि [ लभंति ]।
$ ३५९. अण्णदरजोगट्ठाणे त्ति भणिदे अण्णदरतप्पाओग्गजहण्णजोगहाणे त्ति संबंधो कायव्यो। एवं संबंधो कीरदि त्ति कुदो णव्वदे ? एत्थ जोगट्ठाणमेत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि लब्भंति त्ति सुत्तणि सण्णहाणुववत्तीदो। सवेदस्स तिचरिमसमए वहां प्राप्त हुए तत्ययोग्य जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारसे अधिक एक भागमें जितने रूप सपलब्ध होते हैं तत्प्रमाण चरम फालियोंका अन्तर देकर यह अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । अब तत्प्रायोग्य जघन्य योगके द्वारा बन्ध कर आये हुए द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होनेतक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर तीनों ही फालियाँ उत्कृष्ट हो जाती हैं । इसलिए यहां पर योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं यह जो कहा है वह भले प्रकार ठीक ही कहा है।
शंका-तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे लेकर उपरिम अध्वानमात्र ही चूंकि यहां पर प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं, इसलिए योगस्थोनप्रमाण सत्कर्मस्थान यहां पर उपलब्ध होते हैं यह कथन घटित नहीं होता ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अधस्तन योगस्थानअध्वान सब योगस्थानअध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उसकी प्रधानता नहीं है।
ॐ जो चरम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगवाला है, द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगवाला है और त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीव अन्यतर योगवाला है उसके बन्ध करने पर यहां पर योगस्थानप्रमाण प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं।
६३५९. सूत्रमें ' अन्यतर योगस्थान' ऐसा कहने पर 'अन्यतर जघन्य योगस्थान ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए।
शंका-इस प्रकार सम्बन्ध किया जाता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान यहां पर 'योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं' ऐसा सूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि सूत्र में आये हुए 'अन्यतर योगस्थान' पदका अर्थ 'अन्यतर जघन्य योगस्थान' लिया गया है।
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