Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 343
________________ ३३२ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ हेडा एत्तियमेत्तमद्वाणं दुचरिमसमय सवेदो ओदारेदव्वो । एवमेदेहि जोगेहि परिणमिय अधियारदुचरिमसमय दिस्स तिणिफालिदवं पुब्बिल्ल तिण्णिफालिदव्वेण सरिसं, ओट्टिदअहियदव्वत्तादो । ६३७२. संपहि दुरिमसमय सवेदो पक्खेवुत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव अद्धजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे दुचरिमफाली उकस्सा जादा, रूवूणअधापवत्तभागहारेण ओवद्विदअद्धजोगपक्खेवभागहारे दुगुणिदे रूवणअधापवत्तभागहा रेगोवट्टिद उकस्सजोगपक्खेवभागहारपमाणाणुवलंभादो' । संपहि अद्धजोगादो उवरि पक्खेत रकमेण दुरिमसमयसवेदो वढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । एवं वड्ढाविदे चरिमफालियाए सयलजोगहाणद्वाणमेचाणि पदेस संतकम्मद्वाणाणि लढाणि अद्धजोगपक्खेववेभागहारमे तसंतकम्मडाणाणं दोवारमुवलंभादो । एत्थ एत्तियाणि चैत्र पदे ससंतकम्मड्डाणाणि लम्भंति, तिन्हं फालीणमुकरसभाबुवलंभादो | ६ ३७३. संपहि अण्णेगो सवेदस्स चरिम- दुचरिम-तिचरिमसमएसु तिभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदो एदम्मि छप्फालीओ दीसंति । एदासिं छहं फालीणं दव्वं पुव्विल्ल तिण्णिफालिदव्वादो विसेसाहियं, तिन्हं चरिमफालीणं वेतिभागेहि दोउक्कस्सचरिमफालीओ होंति दुचरिमफालीए दोहि वेतिभागेहि सतिभागा एगा उकस्सजोगदुचरिमफाली होदि ति पुव्विल्लतिण्णिफालिदव्वादो एदं दव्वं सरिसं द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको इतनामात्र अध्वान उतारना चाहिये । इस प्रकार इन योगों से परिणमा कर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुए जीवकी तीन फालियोंका द्रव्य पहले की तीन फालियों के द्रव्यके समान है, क्योंकि अधिक द्रव्यका अपवर्तन हो गया है। ६ ३७२. अब द्विचरम समयवर्ती सवेदो जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे अर्ध योग प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर द्वि चरम फालि उत्कृष्ट हो जाती है, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित अर्ध योग प्रक्षेप भागहार के द्विगुणित करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित उत्कृष्ट योग प्रक्षेपभागहारका प्रमाण उपलब्ध होता है । अत्र अर्धयोगके ऊपर एक एक प्रक्ष ेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाने पर चरम आवलिके समस्त योगस्थान अध्वानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं, क्योंकि अर्ध योग प्रक्षेपके दो भागहारमात्र सत्कर्मस्थान दो बार उपलब्ध होते हैं। यहां पर इतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान ब्ध आते हैं; क्योंकि तीन फालियोंकी उत्कृष्टता उपलब्ध होती है । § ३७३. अब अन्य एक जीव सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयों में तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगसे बन्ध कर अधिकृत स्थितिके त्रिचरम समयमें अवस्थित है । तब इसके छह फालियां दिखलाई देती है । इन छह फालियोंका द्रव्य पहलेकी तीन फालियों के द्रव्यसे विशेष अधिक है जो तीन चरम फालियोंके दो त्रिभागके साथ दो उत्कृष्ट चरम फालियाँ होती है तथा द्विचम फालिके दो त्रिभागों के साथ एक विभागसहित उत्कृष्ट योग द्विचरम १. ता० प्रतौ 'पाणावलंभादो' इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ 'चेत्र संतकम्महाणाणि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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