Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
२६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ति ५ हाणिगुणिदेगेहंदियसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकडुक्कड्डण-अधापवत्तभागहारेहि व छावद्विअन्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा चरिमफालीए च ओवट्टिदे आगच्छदि । एत्थ जहा मिच्छत्तस्स विगिदिगोवुच्छाए संचयकमो परूविदो तहा परूव यव्यो, विसेसाभावादो । अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ पुण मिच्छत्तस्सेव परूव दवाओ, परिणामवसेण तासिं समुप्पत्तीए।
___$२५७. एदम्मि जहण्णदव्वे एगपरमाणुम्मि वड्डिदे विदियहाणं, दोसु वडिदेसु तदियं । एवं वड्ढावेदव्वं जाव एगगोवुच्छविसेसो एगसमयं विज्झादभागहारेण परपयडीसु संकेतदव्वं च वड्डिदं ति । एवं वड्विदूण द्विदेण अण्णेगो समयणवेछावट्ठीओ भमिय अणंताणुबंधिचउक विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेगं धरिय द्विदो सरिसो।
२५८. एवमेदेण बीजपदेण दुसमयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावडीओ ओदारिय क्वविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुववजिय सम्मत्तं घेत्तण पुणो अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय अंतोमु हुत्तेण संजुत्तो होदण सम्मत्तं पडिवन्जिय पुणो अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो त्ति ।
परन्तु डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयपबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षणभागहार, अधःप्रवृत्तभागहार, दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और अन्तिम फालिका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। जिस प्रकार मिथ्यात्वकी विकृतिगोपुच्छाके संचयका क्रम कहा है उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। परन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाओंका कथन मिथ्यात्वके समान ही करना चाहिए, क्योंकि उनकी उत्पत्ति परिणामोंके अनुसार होती है।
६२५७. इस जघन्य द्रव्यमें एक परमाणु बढ़ाने पर दूसरा स्थान होता है और दो परमाणु बढ़ाने पर तीसरा स्थान होता है । इस प्रकार एक गोपुच्छा विशेष और एक समयमें विध्यात भागहारके द्वारा पर प्रकृतिमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो एक समयकम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर और अनन्तानुबन्धि चतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है।
६२५८. इस प्रकार इस बीजपदसे दो समयकम आदिके क्रमसे तब तक उतारते जामा चाहिये जब तक अन्तर्मुहूर्तकम दो छयासठ सागर काल उतार कर वहाँ पर क्षषितकर्मा शकी विधिसे आकर, देवोंमें उत्पन्न हो और सम्यक्त्वको ग्रहणकर फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर फिर अन्तमुहूर्तमें उससे संयुक्त हो, सम्यक्त्वको प्राप्त कर फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्काकी विसंयोजना कर दो समयको स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित होवे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org